फिर से जवान होने को है कश्मीर की कानी शॉल का बुनाई कौशल
कानीहामा गाँव में एक कानी बुनाई हथकरघे का दृश्य |
कानीहामा गाँव में एक कानी शिल्पकार |
कानीहामा गाँव का नाम महीन बुनाई की तकनीक के नाम पर पड़ा है, जहाँ बड़ी संख्या में इससे जुड़े शिल्पकार रहते हैं। गाँव के स्वागत बोर्ड के बिल्कुल पास सरकार ने शिल्पकारों के लिए एक सुविधा केंद्र स्थापित किया है। इसी के एक हिस्से में सज्जाद कानीहामा कुछ कारीगरों के साथ कानी शॉल की बुनाई की देखरेख कर रहे हैं, जहाँ हथकरघे में पश्मीना रंगारंग धागे कानी(लकड़ी की छड़) में लिपट कर आकर्षक शॉल का रूप धारण कर रहे हैं। सज्जाद अहमद कानीहामा के पिता कभी राजनीति रहते हुए विधानसभा में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे, लेकिन अब सज्जाद का पूरा ध्यान कानी शॉल के यूरोपीय बाज़ार पर है, जहाँ उनकी एक शॉल की कीमत उन्हें 1.20 लाख से पाँच-छह लाख तक भी मिल सकती है, हालाँकि देशी बाज़ार में कानी शॉल की कीमत उसकी बनावट और बुनावट के कौशल के हिसाब से आठ-दस हज़ार से लेकर लाख-डेढ़ लाख रुपये तक पहुँचती है। कश्मीरी कौशल के विरासत से जुड़ी इस शॉल को ब्रांड बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अभिनेता अमिताभ बच्चन जैसे बडे चेहरे शामिल हैं।
कानीहामा गांव में सरकार द्वारा स्थापित सुविधा केंद्र संचालित हथकरघा युनिट के संचालक सज्जाद अहमद कानीहामा |
इस लूम से बाहर निकलकर हम कानीहामा गांव की मुख्य सड़क से एक छोटी सी गली में पहुंचते हैं। दो से तीन मंज़िला खास कश्मीरी तर्ज के बने मकानों की क़तारों से होते हुए एक बड़े से फ्रंट गार्डन और खुले सहन वाले मकान की दूसरी मंज़िल पर कुछ कारीगर कानी शॉल बुनने में व्यस्त हैं। डिजाइनरों की दी गयी आकृतियों और रंगसज्जा के अनुसार रंगारंग धागों से शॉल को आकार लेते हुए देखना स्मरणीय पलों का हिस्सा बन जाता है।
मी एंड के हथकरघा युनिट के प्रबंधक सुहैल फय्याज़ सतहरवीं शताब्दी की पश्मीना शॉल की प्रतिकृति प्रदर्शित करते हुए। |
गुलाम अहम रीशी, गुलज़ार कानी, फैसल अहमद, अश्फाक़ अहमद गांव के उन तीन चार सौ शिल्पकारों में से हैं, जो दिन भर करघे पर काम करते हैं और अपनी कला पारंगतता के आधार पर बीस से चालीस हज़ार रुपये तक की मासिक आय पाते हैं। घरों में कुछ महिलाएं भी हैं, जो चूल्हा चक्की और बाल बच्चों से अपना समय निकालकर कुछ हज़ार रुपये का काम कर लेती हैं। शब्बीर अहमद, फरीद अहमद, फय्याज और जबीना बानो उन शिल्पकारों में हैं, जिन्होंने पिछले वर्षों में कानी शॉल की बुनाई के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है। गाँव से गुज़रते हुए हर दूसरे तीसरे घर की गुलाबी रंग की दीवारों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं तो पता चलता है कि जिन कानी कारीगरों को लूम संचालित करने और घरों के निर्माण में सरकार ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, उनकी दीवारें गुलाबी रंग की हैं।
पारंपरिक चरखे को सिलाई मशीन से जोडने के बाद पश्मीना ऊन से धागा कातती कश्मीरी युवती |
हैदराबाद से पीआईबी के अधिकारी डॉ. मानस कृष्णकांत और शिवचरण रेड्डी के साथ पत्रकारों की टीम जब इस कश्मीरी गांव की गलियों से गुज़रती है तो कुछ लोग घरों की खिड़कियों से ही अभिवादन करते बहुत भले लगते हैं और रुककर स्थानीय केसर और सूखे मेवों से बना स्वादिष्ट घावा पीने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
जम्मू कश्मीर हथकरघा विभाग के निदेशक महमूद अहमद शाह बताते हैं कि राज्य में बुनकरों की संख्या पचहत्तर हज़ार से अधिक है, जिनमें कानी शॉल सहित कई प्रकार के ऊनी परिधान बनाने की कला जानते हैं। कुछ लोग कानी तकनीक को पंद्रहवीं सदी से तो कुछ लोग उसे और कुछ सौ वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि ईरान और तुर्की से यहल कला यहाँ पहुँची है, लेकिन अहमद शाह कश्मीरी हैंडलूम की विरासत को दो हज़ार वर्ष पुराना बताते हैं। उनका प्रमाण है कि कश्मीर में फारसी भाषा से पहले शारदा भाषा सरकारी भाषा हुआ करती थी और उसके दस्तावेज़ों में इस तरह की तकनीकों का उल्लेख मिलता है।
जम्मू कश्मीर के हैंडलूम विभाग के निदेशक महमूद अहमद शाह, हैदराबाद के मीडिया प्रतिनिधियों के साथ |
श्रीनगर के ही एक हथकरघा यूनिट मी एंड के में पहुँचते पर हम यहाँ गांधीजी के चरखे से उन्नत हथकरघा और फिर उससे जोड़ी गयी सिलाई मशीन पर पश्मीना कातती हुई युवा कश्मीरी लड़कियों को देखते हैं, तो लगता है कि दुनिया के प्रमुख हस्तशिल्प केंद्र की रगों में नया खून दौड़ रहा है। हाल के वर्षों में केवल इसी केंद्र से 520 लड़कियों ने पश्मीना धागा कातने सहित विभिन्न तकनीकों में प्रशिक्षण प्राप्त किया है। सरकार के समर्थन से संचालित केंद्रों में हर साल आठ से नौ हज़ार महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि बुनाई कढ़ाई को शिल्पगत आयाम देकर वादियों के साथ-साथ हस्तशिल्प में कश्मीर की लोकप्रियता को बनाये रखने में इस प्रांत के लोग जी जान से लगे हुए हैं। फ्रांस सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न संग्रहालयों से प्राप्त पश्मीना शॉलों के नमूने प्राप्त कर उनकी प्रतिकृतियां बनायी जा रही है, जिनपर कशीदाकारी और एंब्राइडरी के उत्तम नमुने आकार ले रहे हैं।
चलते चलते यह जानना भी ज़रूरी है कि बुनकरों द्वारा जिस पश्मीना ऊन का उपयोग किया जाता है, वह लद्दाक़ के निकट पहाड़ों पर पलने वाली पश्मीना बकरियों से पैदा होता है। बताया जाता है कि तिब्बती पठार की चांगथांगी पश्मीना बकरियाँ अपने शरीर से हर साल 80 से 170 ग्राम ऊन अलग करती हैं। इस ऊन से पशुचालक, थोक व्यापारी, कताई करने वाले, रंगरेज़, डिज़ाइनर, कढ़ाई करने वाले, और उद्यमी सभी लोगों का जीवन यापन होता है।
पीढ़ियों पुरानी तकनीक से हथकरघों पर बुने और रंगे हुए शॉलों की धुलाई का कार्य झेलम नदी के किनारों पर होता है। इस तरह कारीगरों का यह कारवाँ श्रीनगर से लेकर गांदरबल और बारामुला के आस पास कई बस्तियों तक फैला हुआ है और बड़ी संख्या में लोग अपने पूर्वजों से मिली विरासत को संजोने और संवारकर दुनिया के शौक़ीन लोगों तक पहुँचाने में लगे हुए हैं।
एफ एम सलीम
Comments
Post a Comment