जमीन की जन्नत पर सचमुच के इंसान
इसमें पैसे की बात कहाँ से आयी? अचानक किया गया सवाल टैक्सी कैब से उतरने को तैयार हम चारों लोगों के लिए आश्चर्य में डालने वाला था। यह बात अगर कोई पैसे देने वाला कहे तो समझ में आती है, लेकिन अगर कोई टैक्सी कैब का ड्राइवर मुसाफिरों को अपनी मंज़िल पर छोड़ने के बाद कहें तो आश्चर्य होगा ही। हम सब हैरत से उस ड्राइवर के चेहरे को देखते रहे, जो हल्की सी मुस्कान चेहरे पर बिखेरे बिल्कुल सामान्य था और बार-बार ज़ोर देने के बाद भी पैसे लेने को तैयार नहीं हुआ।
चार चिनार, डल लेक,श्रीनगर |
घटना ज़मीन की जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर के मुख्य शहर श्रीनगर की सबसे मशहूर जगह डल झील के पास की है। पर्यटन स्थलों पर आम तौर पर जहाँ लोग पर्यटक की जेब से जितने ज्यादा पैसे निकल जाए निकालने को तैयार रहते हैं, वहाँ इस तरह कोई अगर आपके दिलो-दिमाग़ को झंझोड़ देने वाला मिल जाए तो लगता है कि ज़मीन पर अब भी सचमुच के इंसान रहते-बसते हैं। परी महल से डल गेट के बिल्कुल आखिरी कोने पर चिनार पार्क तक कोई अपनी टैक्सी कैब में चार यात्रियों को छोड़े, वह भी ऐसे समय जब सुबह-सुबह कोई ऑटो रिक्शा, सरकारी बसें या टैक्सियाँ सड़क पर आसानी से उपलब्ध न हों, किसी कैब चालक का पैसे लेने से इनकार करना केवल अच्छा नहीं, बल्कि बहुत भला लगता है।
ऐसा लगता है, वह सुबह हम चार लोगों के लिए आश्चर्य चकित करने वाली कई घटनाएं एक साथ लेकर आयी थी। विशेष रूप से ऐसी घटनाएं, जिनसे गुज़रकर आदमी पर आदमी का भरोसा बना रहे। यह कहने पर मजबूर हों कि धरती पर अभी बहुत सारे अच्छे लोग मौजूद हैं।
डॉ. मानस कृष्णकांत, शिवचरण रेड्डी, सुधीर और एफ एम सलीम |
हैदराबाद के पत्रकारों का एक प्रतिनिधि मंडल कश्मीर में सरकारी परियोजनाओं की अध्ययन यात्रा पर था। पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार, सुबह लगभग 6 बजे प्रेस इन्फर्मेशन ब्यूरो(पीआईबी) के उप निदेशक डॉ. मानस कृष्णकांत और अधिकारी शिवचरण रेड्डी ने मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी। साथ में फोटोग्राफर सुधीर कालंगी भी मौजूद थे। कड़ाके की सर्दी के बीच गर्म कोट और कानों को ढकने वाली ऊनी टोपी पहनकर बाहर निकले। बिशंभरनगर की पलती गलियों से निकलकर लाल चौक जाने वाली मुख्य सड़क पर पहुँचे तो, देखा कि सेना के कैंप के पास एक सिपाही सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। पूछने पर सिपाही ने बताया कि वे अपने परिसर के बाहर की सड़क पर सफाई के लिए नगरपालिका के कर्मियों का इंतज़ार नहीं करते, बल्कि सुबह-सुबह सफाई का काम खुद ही कर लेते हैं। पास ही डल को जोड़ने वाली नहर पर एक खूबसूरत सा फुटओवर ब्रिज बना हुआ है। इस पर से चलते हुए हम चिनारबाग़ में पहुँच जाते हैं, जहां बड़ी संख्या में चिनार के पेड़ और नीचे चिनार के पत्तों से भरा पड़ा क्षेत्र किसी सुहाने स्थल पर पहुंचने का आभास देता है। कुछ देर बिताकर हम सीधे चिनारबाग़ बंड पर बने वॉक वे पर चलते हुए डल गेट पर पहुंचते हैं।
तय तो यही था कि जो भी बस मिलेगी, उसमें बैठकर सुबह-सुबह श्रीनगर की सैर कर लेते हैं। एक (1) नंबर बस खड़ी थी। बस में चढ़ते ही गर्म हवा छोड़ता ब्लोअर कुछ सुकून पहुँचाने वाला था। पूछने पर पता चला कि बस डल झील के आखिरी किनारे तक जाएगी। हमने गूगल मैप पर देखा तो पाया कि रास्ते में परी महल पड़ता है, वहाँ उतर जाएंगे। बस में हमारे अलावा मुश्किल से एक दो यात्री थे। कंडक्टर शांत अपनी सीट पर बैठा हुआ था। हमारे उतरने से पहले वह टिकट के लिए आया और चार लोगों के अस्सी रुपये पूछे। मैंने अपनी जेब से दौ सौ रुपये का नोट निकाला तो कंडक्टर ने ना में सिर हिलाते हुए चिल्लर पूछा। मैंने जेब टटोली तो सिर्फ पचास रुपये चिल्लर निकल आया। सभी ने अपनी जेबें टटोली, दो सौ से कम का नोट किसी के पास नहीं था। कंडक्टर के चेहरे पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं थी। हैदराबाद में होते तो शायद कंडक्टर हमारी तारीफ में दो चार फूल उछाल कर सीधे बस से उतरने का इशारा कर देता और फिर बड़बड़ाते हुए ड्राइवर को बस रोकने का आदेश दे देता। यहां ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बड़े ही शांत स्वर में कंडक्टर ने कहा, सर कोई बात नहीं, आपका बस स्टॉप आ गया है।
गूगल मैप पर देखा तो परी महल डल झील के किनारे से लगभग तीन किलोमीटर था। यहीं पर तुलिप गार्डन और चश्मे शाही गार्डन के मार्ग सूचक लगे हुए थे। सड़क पर अभी कोई गाड़ी नहीं चल रही थी। हम पैदल की उस मार्ग पर निकल पड़े। कुछ दूर पहुंचे थे कि पीछे से एक ट्रैवलर गाड़ी आती हुई दिखाई दी। रुकने का इशारा करने पर वह गाड़ी कुछ दूर जाकर रुकी। हम जब वहाँ पहुँचे और बताया कि हमें परी महल जाना है, ड्राइवर ने उत्तर में कहा, "मैं छोड़ तो दूँगा, लेकिन इतनी जल्दी परी महल खुलता नहीं है, वह तो दस बजे खुलेगा।"
निश्चित रूप से दस बजने के लिए अभी लगभग ढाई घंटे शेष थे। ड्राइवर ने फिर कहा, "आप दस बजे आइए, हमारी सर्विस मिल जाएगी।"
चिनार, बाग |
हम वहाँ से पैदल ही वापस निकल पड़े। कुछ ही दूरी पर डल की एक घाट पर बने मंच पर पहुंच कर सुबह का आनंद लेने लगे। सूरज अभी राजभवन के उस तरफ की पहाड़ियों के पीछे ही छुपा हुआ था। दूसरी ओर कुछ दूर चार-चिनार का दृश्य था। कुछ देर सेल्फी-सेल्फी करने के बाद हम होटल के लिए निकल पड़े। देर तक बस का इंतजार किया, लेकिन न मिलने पर टैक्सी कैब को हाथ का इशारा किया तो रुक गयी। इसी कैब के ड्राइवर हमारी उस सुबह के आश्चर्य का चरम उत्कर्ष सिद्ध हुए। हमारे बताए हुए पते के बिल्कुल नज़दीक तक छोड़ने के बाद उन्होंने पैसे लेने से यह कहते हुए इनकार किया कि किस बात के पैसे? ड्राइवर के शब्द एक सप्ताह गुज़रने के बाद आज भी कानों में गूंज रहे हैं। .... न मैंने आपको सवार होते समय कुछ पूछा और न आपने कुछ किराया चुकाया। मैं इसी ओर आ रहा था और रास्ते में आप मिल गये। इसलिए पैसों की कुछ बात नहीं। बस आप दुआ दीजिए।... हम हैरत में पड़े यह विचार करते हुए होटल की ओर चल पड़े कि ऐसे भले लोग अब भी मिल जाते हैं।
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