माया मोहन


(कहानी)

मौसम विभाग का अनुमान सही निकला था। बारिश कभी थम-थम कर तो कभी जम-जम कर बरस रही थी। मैं अपने छाते को संभाले फुटपाथ से बचते-बचाते किसी तरह कॉफी डे तक पहुँचा। आज लोग बहुत कम थे। यूं भी वहाँ जगह इतनी बड़ी थी कि भीड़ जैसी हालत कम ही नज़र आती। मैं अकसर छातेनुमा टीन के शेड के नीचे बैठा कॉफी की चुस्कियों के साथ अपनी कहानियों के लिए किरदार तलाश करता था। अक्सर लोग एक दूसरे को चेहरे से जान-पहचान लेते और आँखें मिलने पर कभी जबान से तो कभी इशारे से हाय हैलो कर लिया करते। उस दिन बारिश के बीच जब मैंने अपने टेबल की ओर कदम बढ़ाए तो वहाँ पहले से कोई मौजूद था। मैं कोई दूसरी जगह तलाश करने के बारे सोच ही रहा था कि उधर से आवाज़ आयी, "आइए लेखक महोदय, आपके टेबल पर कौन क़ब्ज़ा कर सकता है?"

मैंने मुश्किल से 'जी' कहा और बैठ गया। वो माया थी। वो भी मेरी तरह अक्सर कॉफी डे आती थी। मैं सोचता ज़रूर था कि उसके बारे में मुझे जानना चाहिए। वो मेरी किसी कहानी का किरदार हो सकती है, बल्कि वो खुद पूरी की पूरी कहानी भी हो सकती है, लेकिन उसकी शख़्सियत का दबदबा इतना था कि मैं कभी उससे बात करने के लिए उसके टेबल तक नहीं पहुँच सका। हाँ एक दिन एक दोस्त ने उससे मिलाते हुए मेरा परिचय उससे ज़रूर करवाया था और तब से हाय-हैलो हो जाती थी। माया आम लड़कियों और महिलाओं से कुछ अलग थी। वह कभी-कभार रेस्तराँ में आती भी थी तो अलग से एक कोने में कभी कोई महिला या कोई पुरुष के साथ कोल्ड कॉफी पीते हुए कुछ देर बातचीत करती और स्मोकिंग ज़ोन में एक सिगरेट का धुआँ उड़ाकर चली जाती। बहुत कम किसी से बात करती।

आज मेरे आने से पहले वो टेबल पर मौजूद थी। उसके चेहरे से साफ था कि दिल का गुबार निकालना चाहती है। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मैं कोल्ड कॉफी का आर्डर देने के बाद  कुछ कहना ही चाहता था कि माया ने बात शुरू की, "शायद आज फिर तेज़ बारिश हो सकती है।"

"हाँ लगता तो ऐसा ही है, सुबह से सूरज भी नहीं निकला है। बादल छाए हुए हैं। इन बादलों के पीछे ढेर सारा पानी छुपा हुआ है, जो किसी भी समय आसपास के इलाकों पर बरस जाएगा।"

कोल्ड कॉफी की चुस्कियों के बीच माया ने अचानक मेरी एक कहानी का जिक्र छेड़ दिया। कहने लगी, "मैंने आपकी एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें मोहन का पात्र था।"

मुझे याद आया। कुछ दिन पहले ही तो यह कहानी कल्पना मैग्ज़ीन में छपी थी। उस कहानी में मोहन एक साफ्टवेयर कंपनी में काम करता है और उसी कंपनी की कर्मचारी माया से उसकी दोस्ती होती है। कुछ ही दिन में लगता है कि दोनों एक दूसरे से अगाध प्रेम करते हैं। फिर एक दिन मोहन को पता चलता है कि घरवालों ने माया के विवाह की बात पहले से ही कहीं पक्की कर रखी है। हालाँकि दोनों घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ शादी करने के बारे में सोचते हैं, लेकिन एक दिन मोहन ही ऐसा करने से इनकार कर देता है। मोहन को पता चल जाता है कि माया उसके एक कॉलेज सहपाठी की बहन है, जिससे पढ़ाई के दौरान उसकी अच्छी दोस्ती हुआ करती थी और उसके बहुत सारे एहसान मोहन पर थे। माया के बहुत समझाने पर पर भी मोहन फैसला बदलने के लिए राज़ी नहीं होता। आख़िर दोनों तय कर लेते हैं कि माया वहीं शादी करेगी, जहाँ घरवाले चाहते हैं। वे अपनी मित्रता में कोई कटुता आने से पहले ही एक ख़ूबसूरत मोड़ पर अलग हो जाते हैं।

माया की ज़ुबानी अपनी लिखी कहानी सुनते हुए मैं उस कहानी में खो-सा गया था। कहानी कहते-कहते वह खामोश हो गयी, तब भी मुझे लग रहा था कि वह सुनाए जा रही है। माया ने मुझे झंझोड़ते हुए कहा, "कहाँ खो गये लेखक महोदय? आप इधर देखिए मेरी तरफ। आपको तो अभी और अधिक हैरान होना है। आपकी उस कहानी की माया मैं ही हूँ।"

आश्चर्य की गिर्द की कोई आख़िरी तह हो सकती है, तो मैं उसी में डूब गया था, बल्कि उस तह के नीचे दबने लगा था। मैं जिस महिला को अक्सर कैफ़े में देखता रहा, उससे हाय हैलो भी हुई और आज वह मेरे सामने बैठी है, बात कर रही है और उसका दावा है कि वह मेरी पिछली कहानी की नायिका है। अगर माया मुझे फिर से नहीं झंझोड़ती तो मैं ग़श खाकर कुर्सी पर लुढ़क जाता। वह कह रही थी, "सुनो लेखक महोदय, अभी बहुत कुछ बाक़ी है, लेकिन वह सब बताने से पहले मुझे यह बताओ कि उस कहानी की माया के बारे में तुम्हे कैसे पता चला? क्या तुम मोहन से मिले थे या फिर किसी और ने तुम्हें मोहन और माया की कहानी सुनायी थी?"

मैं अपनी लिखी कहानी के अतीत में घिरता जा रहा था। मैं सोचने लगा कि जब सामने बैठी महिला वही माया है तो वह उस माया के बारे में भी सब कुछ जानती होगी, जो मेरी कहानी का किरदार थी। मुझे अभी भी यह तय करना था कि माया वही माया है या कोई और। मैंने उससे सीधा सवाल किया, "अगर तुम सचमुच में उस कहानी की माया हो तो बताओ मोहन कहाँ है?"

मेरे सवाल पर वह बिल्कुल नहीं चौंकी। शायद उसे पहले से पता था कि मैं उससे यह सवाल कर सकता हूँ। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये उसने सपाट लहजे में कहा, "नहीं मुझे नहीं पता वह कहाँ है। वही मोड़ हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी, जिस पर हमने जुदा होने का फैसला किया था। उसके बारे में किसी ने कोई जानकारी मुझे नहीं दी। उसने मेरे भाई का एहसान चुका दिया था..बस, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि तुम मोहन के बारे में जानते हो? बताओ वह कहाँ है?"

मुझे याद आया कि मोहन के बारे में मुझे डॉक्टर छाया ने बताया था। छाया से मेरी मुलाक़ात मुंबई में एक पुस्तक मेले में हुई थी, जहाँ मेरी कहानियों की किताब पर चर्चा हो रही थी और मुझे भी बुलाया गया था। छाया ही ने मोहन और माया की कहानी मुझे बतायी थी। मोहन हैदराबाद में पला-बढ़ा तो नहीं था, लेकिन कॉलेज, यूनिवर्सिटी और नौकरी के लगभग 9 साल उसने यहाँ गुज़ारे थे। उस साफ्टवेयर कंपनी में काम करते हुए उसे दो साल भी नहीं बीते थे कि उसने वह नौकरी छोड़ दी थी। हैदराबाद को वह बहुत पसंद करता था। यहाँ उसके इतने सारे दोस्त बन गये थे। वह महफिलों की जान हुआ करता था। उसकी शायरी और लतीफाबाज़ी से लोग मनोरंजित होते थे, यह इस सबको अलविदा कहते हुए एक दिन अचानक उसने शहर छोड़ने का निर्णय ले लिया था। वह सिर्फ माया से अलग नहीं हुआ था, बल्कि एक पूरी दुनिया जो उसके आसपास आबाद थी, वह सब छोड़कर इस शहर से चला गया। 

बाद में मोहन की ज़िंदगी में बहुत सारे शादी के प्रस्ताव आये, लेकिन उसने मना कर दिया। हालाँकि मुझे मोहन की उस दूसरी कहानी से कोई मतलब नही था। मेरी कहानी के लिए बस उस फैसले की अहमियत थी, जिसमें दो प्रेमियों ने खुद बिछड़ने की मुहर लगा दी थी। उसके बाद मुझे उस किरदार से कोई काम नहीं था, इसलिए मैंने उसके बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं की, लेकिन क्या पता था कि एक दिन कोई कब्र से बाहर निकलकर सवाल करने लगेगा?

मैंने महसूस किया कि अपने भीतर का कहानीकार एक और कहानी के तत्व जोड़ रहा है। वह सोच रहा है कि जुदा होने के फैसले के बाद की भी कोई कहानी हो सकती है। उसी कहानी की तलाश में मैंने माया से सीधा सा सवाल किया, "सच बताओ माया जुदा होने के फैसले से क्या तुम खुश थीअक्सर लोग तो कुछ दिन की जुदाई के बारे में सोचकर ही तड़प जाते हैं, तुम दोनों तो हमेशा के लिए जुदा हुए थे?"

"दुख तो हुआ था, लेकिन हम पढ़े लिखे थे, दुनियादार थे, ज़िंदगी की कीमत जानते थे। ख़ास बात यह थी कि मोहन ने वह फ़ैसला मजबूरी में नहीं लिया था। उसका सोचा समझा फैसला था और इस पर एक दो दिन में नहीं, बल्कि कई बार मिलबैठकर हमने चर्चा की थी और फिर बिछड़ते वक़्त हमारी आँखों में आंसू के साथ एक अजीब सी खुशी भी थी कि हमारी जुदाई में कड़ुआहट का तिल बराबर भी समावेश नहीं है। हमारी ज़िंदगी में कोई मुसीबत तो थी नहीं कि मिलकर बांट लेते। डेढ़ दो वर्ष जो हमने साथ बिताए थे, वह यादें मुहब्बत की एक बड़ी पूंजी थी, जो हमारी निजी संपत्ति थी। इसके साथ किसी और की हिस्सेदारी नहीं थी। बहुत ही ख़ूबसूरत यादें। दुख का साया भी उन पर नहीं गुज़रा था। मैं तुम को बताऊं कि मैंने कभी मोहन को तलाश नहीं किया। हाँ जब मैंने तुम्हारी लिखी कहानी पढ़ी तो बस मन में हल्का सा एहसास जागा कि मोहन के बारे में कुछ और जान सकूँ। इससे ज्यादा कुछ नहीं।"

बातचीत में हम कॉफी के दो कप ख़त्म कर चुके थे। मैं माया के सुकून में कंकर फेंककर हलचल नहीं मचाना चाहता था। मैंने उससे यह कहते हुए विदा ली कि जब भी मोहन के बारे में कुछ पता चलेगा मैं बता दूँगा।

यह बात अलग है कि मैं मोहन के बारे में जानता था। उसने एक छोटी सी ग़रीब बस्ती को अपना रखा है, जहाँ के बच्चे उसके दीवाने हैं। ढेर सारी मिठाइयों के साथ वह हर सप्ताह वहाँ पहुँच जाता है। वह शहरी ज़िंदगी से बहुत दूर एक लेबॉरेट्री में जानलेवा बीमारी के इलाज की दवा बनाने वाले डॉक्टरों की टीम के साथ काम कर रहा है और डॉक्टर छाया उसी टीम का हिस्सा है, जिसने मुझे मोहन और माया की कहानी सुनाई थी। छाया मोहन की अच्छाई पर मर मिटी थी। उसने मोहन को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाया। यह जानते हुए भी कि मोहन के मन की दुनिया में माया की यादें बसी हुई हैं। वह जानती थी कि मोहन मुहब्बत का एक फूल, पौधा या पेड़ नहीं है, बल्कि वह तो एक पूरा बाग़ है, जो महकता रहता है। उसके लिए मुहब्बत का कोई अंत नहीं है, बल्कि उसकी मुहब्बत ज़िंदगी का विस्तार है।

 



 

 

Comments

  1. Bahut din baad aaya hai aapka blog.

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  2. so beautiful. I felt like I was the main character. It felt real and touched my heart. Thank you for sharing it.

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