जैसे कि चल रहा हो, मन में कोई हमारे
खामोशी कुछ सुनाना चाहती है...
कॉलेज के ज़माने में अकेले कमरे की तन्हाई को दूर करने के लिए एक रिकार्डर खरीदा था। हैदराबाद में हुसैनी अलम की एक कैसेट की दुकान से लता मंगेशकर के कुछ सूपर हिट गाने एक कैसेट में भरवाए और जब उसे तन्हाई में सुनने लगा तो एक गीत के प्रारंभिक बोल सुनकर कान खड़े हो गये। चूँकि सुर काफी धीमी आवाज़ में थे, इसलिए कुछ सुना नहीं जा सक रहा था। रिकार्ड की आवाज़ बढ़ाई, तब भी एक बार में उन शब्दों की स्पष्टता तक नहीं पहुँच सका। जब शब्दों की ध्वनि तक ही नहीं पहुँचा तो भला उनके अर्थ क्या खाक समझ में आते। जैसे जैसे रिप्लाइ करता गया, उन पंक्तियों में दिलचस्पी बढ़ती गयी और आज भी वो पंक्तियाँ खामोशी के नये नये अर्थों से रू ब रू कराती हैं।
1949 में कमाल अमोरोही और अशोक कुमार ने मधुबाला के साथ एक बेहतरीन फिल्म हिंदी दुनिया को दी थी, `महल' और इसका गीत आएगा..आएगा..आएगा..आने वाला आज भी लोगों की ज़ुबान पर बना हुआ है। लता मंगेशकर के वो प्रारंभिक दिन थे, लेकिन आवाज़ का जादू जब सिर चढ़कर बोला तो फिर उतरने का नाम नहीं..। इसी गीत के प्रारंभिक बोल खामोशी को सुनने का आमंत्रण कुछ यूँ देते हैं...
खामोश है ज़माना, चुपचाप हैं सितारे
आराम से है दुनिया, बेकल हैं दिल के मारे
ऐसे में कोई आहट, इस तरह से आ रही है
जैसे के चल रहा हो, मन में कोई हमारे
या दिल धड़क रहा है, इस आस के सहारे
...आएगा..आएगा...आएगा... आने वाला।
फिल्म की शुरूआत से लेकर आखिर तक पृष्ठ भूमि में यह गाना कई बार बजता है, लेकिन फिल्म के शुरू होते ही श्वेत श्याम दृष्य खामोशी को ग़ौर से जानने में रूची जगाते हैं। खेमचंद प्रकाश के संगीत में सजे नक़्शब के बोल दर्शक/श्रोता को उस दुनिया में ले जाते हैं, जहाँ खामोशी का राज है।
हालाँकि इस तरह के विषय डरावनी हॉरर फिल्मों के हो सकते हैं, लेकिन यहाँ इस गीत के दृष्य डर के बजाय खामोशी मे छुपी खूबसूरती को महसूस करने के प्रति उत्साहित करते हैं।
हिलते हुए खिड़की और दरवाज़े के पट, दीवार पर टंगी तस्वीर पर नायक का साया, ऊपरी मज़िल की ओर जाती बरामदे की स़ीढियाँ, घड़ी का हिलता घंटा और बेचैनी पैदा करता झूलता हूआ झूमर...ऐसे में झूला झूलती हुई नायिका का स्वर गूँजता है।
दीपक बगैर कैसे परवाने जल रहे हैं
कोई नहीं चलाता और तीर चल रहे हैं
तड़पेगा कोई कब तक बे आस बे सहारे
लेकिन ये कह रहे हैं, दिल के मेरे इशारे...
भटकी हुई जवानी मज़िल को ढूँढ़ती है
माझी बग़ैर नय्या साहिल को ढूँढ़ती है
क्या जाने दिल की कश्ती कब तक लगे किनारे
लेकिन ये कह रहे हैं, दिल के मेरे इशारे...
आएगा......
आज हम अपनी नयी पीढ़ी से अकसर शिकायत करते हैं कि वो बात नहीं सुनती है, बल्कि अगर सुनती भी है तो अनसुना करती है। दर असल कई बार यह अनसुना करना नहीं होता, बल्कि वो बात उनके कानों से दिल तक पहुँच ही नहीं पाती। जब दिल तक पहुँच ही नहीं पाती तो भला असर कैसे करेगी। दूसरी तरफ यह अनसुना करना आगे चलकर एक रोग भी बन सकता है। बाद में जब पता चलता है कि वह बात तो मेरे लिए थी, लेकिन...तब तक समय निकल चुका होता है।
यही वज्ह हैं कि खामोशी को सुनने की शक्ति आदमी को भीड़ में भी अकेला बने रहने की ताकत देती है। दूसरी ओर खामोशियों के ज़रिये भी कुछ कहा जा सकता है।
बहज़ाद लखनवी का एक शेर याद आता है..
मुझे तो होश न था उनकी बज़्म में लेकिन
खमोशियों ने मेरी उनसे कुछ कलाम किया
खामोशी...एक ऐसी दवा है, जो इस्तेमाल करने वाले को मज़बूत तो करती ही है साथ ही कभी कभी वह बड़े से भाषण पर भी भारी पड़ सकती है। सीमाब अकबराबादी ने कहा था।
मेरी खामोशियों पर दुनिया मुझ को तआन देती है
ये क्या जाने कि चुप रहकर भी की जाती हैं तक़रीरें..
खामोशी का अर्थ चुप्पी बिल्कुह नहीं है, बल्कि वो बातें सुनने की शक्ति पाना है, जो आसानी से सुनी नहीं जा सकती। उन अर्थो को लताशना है, जो खामोशी में छुपे हुए हैं।
बहुत ही सुंदर है। पढ़ते , समझते मंत्र मुग्ध करनेवाला लेखन है।
ReplyDeleteधन्यवाद लक्ष्मीकांता जी।
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