एयर और स्पेस लॉ के एक्सपर्ट प्रो. बालकिष्टा रेड्डी जिनके गाँव को आज भी पक्की सड़क नहीं है
सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...
आप बचपन से ही कानून के प्रोफेसर बनना चाहते थे या इत्तेफाक आपको वहाँ ले गया?
मैं बहुत छोटे से गाँव से हूँ। मेरे गाँव पर्वतायपल्ली (महबूबनगर) में आज भी पक्की सड़क नहीं है। यह गाँव नागर कर्नूल इलाके के तांडूर मंडल में है। मैंने एयर लॉ और स्पेस लॉ पर बात करने के लिए दुनिया घूम ली, लेकिन आज भी मुझे गाँव जाना होता है, तो कच्चे रास्ते से जाता हूँ। मैं वो करना चाहता था, जो दूसरों ने न किया हो, लेकिन हालात ऐसे नहीं थे कि नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त कर सकूँ। हाईस्कूल के लिए रोज़ाना 8 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। इंटर के बाद सारी पढ़ाई इवनिंग कॉलेज से की। डिग्री, एलएलबी और एलएलएम भी इवनिंग कॉलेज से ही किया। लंबे अरसे के बाद दिन में पढ़ने का मौका मिला, तो जेएनयू में पीएचडी का अध्ययन किया। मैंने हैदराबाद में रोज़ी-रोटी के लिए कई सारी नौकरियाँ कीं। टेलीफोन ऑपरेटर का काम भी किया। एक अधिवक्ता के कार्यालय में मुंशी भी रहा। आपने पूछा कि क्यों मैं अधिवक्ता बनना चाहता था, तो दरअसल हमारे खानदानों में अक्सर लड़ाइयाँ होती रहती थीं, जिनके मुकदमें अदालतों में चलते रहते थे। इन विवादों को निपटाने के लिए वकीलों को काफी रुपया देना पड़ता था। आठवीं या नौवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान मुझे ख्याल आया कि वकील बनकर परिवार की मदद करनी है।तो फिर वकालत छोड़ कर आप कानून के शिक्षक क्यों बने?
यह बात सही है कि मैंने एलएलबी वकील बनने के लिए की थी और हैदराबाद के एम.एल. गानू जैसे बड़े वकील के कार्यालय में काम किया, लेकिन दो साल काम करने के बाद लीगल प्रोफेशन में मैंने देखा कि जिस तरह से लोगों ने व्यवसाय को रुपये की उगाही का ज़रिया बना रखा था, वह मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं किसी को आरोपित नहीं कर रहा हूँ, लेकिन मैं वहाँ सेट नहीं हो पाया। मुझे लगा कि यह मेरे लिए नहीं है और मैंने आगे पढ़ने की ठान ली। उस्मानिया से एलएलएम करने के बाद मैं सिविल्स की परीक्षा लिखने की तैयारी के लिए दिल्ली चला गया। एमफिल करने के दौरान मैंने सिविल्स की प्रवेश परीक्षा लिखी, लेकिन नाकाम रहा। उस दौरान मैंने `एयर लॉ' पर दो किताबें लिखने का रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया। यह काम मैंने अपने शिक्षकों के निर्देशन में किया। मेरे प्रोफेसर मणि वर्ल्ड कोर्ड में अधिवक्ता थे और प्रो. भट्ट अंतर्राष्ट्रीय कानून पर खास महारत रखते हैं। दोनों के निर्देशन में लिखी गयी मेरी किताबों पर काफी अच्छी प्रतिक्रियाएँ आयीं। हालाँकि उस समय मेरे अपने साथियों ने इसे महत्वहीन विषय समझकर हतोत्साहित किया। अभी इस विषय के प्रति अच्छा नज़रियाँ नहीं बन पाया था। जेएनयू में अच्छा माहौल था। मैं अपनी किताबों और शोध को लेकर हीरो बन गया था। जेएनयू में किसी को नौकरी मिलना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यदि किसी का शोधपत्र किसी स्तरीय पत्रिका में या पुस्तक में छप जाता है, तो वह हीरो बन जाता है। उन किताबों ने मुझे नया नाम दिया। आज भी सारे विश्व में इन किताबों से विमानन कानून के क्षेत्र में सहयोग लिया जाता है।
आपने बिल्कुल नये क्षेत्र में पीएचडी करने की ठानी। इसमें क्या मुश्किलें हुईं?
मुश्किल नहीं कह सकते, लेकिन इतना ज़रूर है कि मेरे साथ 7 लोगों ने पीएचडी में प्रवेश लिया, जिनमें से पीएचडी पूरा करने वाला अकेला मैं ही था। कुछ लोगों को नौकरियाँ मिल गयीं और शायद कुछ लोग व्यवसाय में चले गये। मुझे लगता है कि गाँव से आने वालों का विल पॉवर ज्यादा होता है। वे कुछ करना चाहते हैं। मैं एशियन इंस्टीटयूट में काम करता था, जहाँ से मुझे 2,000 रुपये मिलते थे। यह काम करने में मुझे खुशी मिलती थी।आपने पीएचडी के दौरान दो बार सिविल्स की परीक्षा लिखी और सफल नहीं हुए। क्या आप इससे मायूस नहीं हुए?
मैं समझता हूँ कि सपने देखने की भी सीमा होनी चाहिए। मैं ऐसा कोई सपना नहीं देख सकता, जो असंभव है। मैंने एक सपना देखा, कोशिश की, लेकिन मुझे लगा कि मेरा बैकग्राउंड वैसा नहीं है, जैसा चाहिए। इसके चलते मैंने दूसरे विकल्पों पर विचार किया। एक दिलचस्प बात बताता हूँ। जब मैं एलएलएम करके पीएचडी के लिए दिल्ली गया, तो मेरा विषय देखकर लोग मुझ पर हँसते थे, क्योंकि उस समय एयर इंडिया और इंडियन एयर लाइंस दोनों घाटे में चल रहे थे। साथी पूछते थे कि एयर लॉ में पीएचडी करके क्या करोगे?, लेकिन कुछ नया करने की धुन में मैंने उनकी बातों का बुरा नहीं माना। आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि कोई एयर लॉ का मुद्दा होता है, तो लोग मुझसे संपर्क करते हैं। हैदराबाद एयरपोर्ट की स्थापना से लेकर आज तक के जीएमआर मेरे संपर्क में हैं। मुझे लगता है कि हमें आने वाले दस पंद्रह वर्षों के बारे में सोचना चाहिए। मैं सन् 2000 में जेएनयू से सीधे नलसार चला आया और यहाँ मुझे काफी कुछ करने का मौका भी मिला।
अपने अनुभवों और शोध से आपने नलसार यूनिवर्सिटी को किस तरह लाभान्वित किया?
यहाँ पर मैंने कई नये कार्यक्रमों की शुरुआत की। आज एविएशन लॉ के साथ एयर लॉ प्रबंधन तथा स्पेस लॉ के साथ टेली कम्युनिकेशन एवं टेक्नोलॉजी, जीआईएस रिमोट सेंसिंग जैसे कई पाठ्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है, जबकि कई अधिवक्ताओं को तो पता ही नहीं है कि इस तरह का भी कोई कानून होता है। आज विश्वविद्यालय अपने पैरों पर खड़ा है।
आप हाल ही में श्रीलंका का दौरा करके आये हैं। वहाँ किस विषय पर आपने मंतव्य रखा?
वहाँ मुझे अंतर्राष्ट्रीय कानून के बारे में स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया गया गया था। विशेषकर स्पेस लॉ पर मैंने बात की। अंतरिक्ष कानून अंतर्राष्ट्रीय है। विशेषकर एयरोस्पेस में इन दिनों काफी संभावनाएँ हैं और यह अंतर्राष्ट्रीय कानून की बड़ी शाखा है।
अंतर्राष्ट्रीय कानून विशेषकर अंतरिक्ष कानून पर भारतीय कानूनविदों में कितनी जागरूकता है?
बहुत कम है। कानून संस्थान तो भारत आ रहे हैं, कानूनविदों के लिए कई अवसर भी हैं, लेकिन विधि से जुड़े लोग आज भी पारंपारिक तौर-तरीकों में ही हैं। उनके लिये कानून का मतलब केवल अदालतों में की जाने वाली प्रैक्टिस तक ही सीमित है, जबकि आज कानून के उपयोग का दायरा काफी बढ़ गया है। दिन-ब-दिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निवेश बढ़ रहा है। कई देश भारत में व्यापार एवं आधारभूत संरचना विकास में रुचि रखते हैं। इसके चलते राष्ट्रों में आपस में कानून की सीमा में विस्तार हो रहा है। यह सब कानूनी ढंग से होना चाहिए। अब अदालत ही कानून का क्षेत्र नहीं रहा। वो जमाना गया, जब काले कोट पहनकर ही कानूनविद कहलाते थे। आज हालात दूसरे हैं। नलसार के विद्यार्थियों में अब केवल 10 प्रतिशत ही पारंपारिक वकालत के पेशे में जाते हैं। शेष 90 प्रतिशत विद्यार्थी कॉर्पोरेट क्षेत्र में जाते हैं। उनका वेतन 1 लाख रुपये से कम नहीं है। लोगों को मालूम होना चाहिए कि कानूनी शिक्षा प्राप्त करके वकील के रूप में प्रैक्टिस करना ही एक मात्र विकल्प नहीं है, बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ कामयाबी हासिल की जा सकती है।
युवा पीढ़ी में अंतर्राष्ट्रीय कानून में अवसरों के बारे में किस तरह जागरूकता लायी जा सकती है?
जागरूकता आ रही है। नलसार की ख्याति दक्षिण के राज्यों में उतनी नहीं है, लेकिन उत्तर के राज्यों में यह काफी मशहूर है। दरअसल पहले मेडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिला न मिलने के बाद लोग सामान्य डिग्री और कानून की ओर आते थे, लेकिन अब दुनिया बदल गयी है। ग्लोबलाइजेशन और लिब्रलाइजेशन ने नये-नये अवसर पैदा किये हैं। देश को चलाने तथा देश के भीतर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए संविधान और उसके आधार पर कानून बनाये गये हैं। यह कानून एयर और स्पेस जैसे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में नहीं चल सकता। दूसरी ओर, कोई भी देश दूसरे देश के साथ अंतर्राष्ट्रीय कानून पर अमल करने के लिए बाध्य नहीं होता, लेकिन वह जब दूसरे देशों के साथ स्वैच्छिक रूप से समझौता करता है, तो उसके लिए उस कानून को मानना अनिवार्य हो जाता है। जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय समुद्री, हवाई तथा ज़मीनी सीमाओं में आपसी सहयोग बढ़ रहा है, अंतर्राष्ट्रीय कानून की बाध्यताएँ भी बढ़ रही हैं। यही कारण है कि विशेषज्ञों की माँग बढ़ रही है।
लोगों में अक्सर इस बात को लेकर अस्पष्टता बनी रहती है कि एक सरकार ने जो समझौते अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किये हैं, तो क्या दूसरी पार्टी की सरकार आने पर भी इनकी अमलावरी अनिवार्य होती है?
सरकार बदलने से जिम्मेदारियाँ नहीं बदलती हैं, क्योंकि सरकार देश का नेतृत्व करती है। चाहे किसी पार्टी की सरकार हो, उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितने समझौते होते हैं, उन सब पर अमल करना अनिवार्य होता है। हालाँकि, यह कानून डंडे से नहीं चलता, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो समझौते किये गये हैं, उन पर सभी देशों को सम्मान करना पड़ता है। उदाहरण के रूप में जब नागर विमानन की बात होती है, तो शिकागो कन्वेंशन के नियमों पर अमलावरी ज़रूरी है। 192 देश उस पर अमल करते हैं। विश्व नागर विमानन 8 खंडों में विभाजित है। उसी के अनुसार, विमानन का संचालन किया जाता है। चाहे सुरक्षा का मामला हो या संचालन का, सभी देश सहयोग प्रदान करते हैं। सारा मामला सहयोग, समन्वय एवं सहमति से चलता है। हो सकता है, कुछ नुकसान भी हो, लेकिन उसके डर से संभावित लाभों को छोड़ा नहीं जा सकता। कुछ देशों में इसके बारे में जानकारी की कुछ कमी है, लेकिन जागरूकता बढ़ रही है।
क्या सभी देश अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन कर रहे हैं?
पहले नहीं करते थे, लेकिन अब करना पड़ रहा है। जैसे चीन पहले गैट और आईएमएफ के नियमों की परवाह नहीं करता था, लेकिन गैट और डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के लिए चीन कई प्रक्रियाओं से गुज़रा और आज विश्वभर में वह अपनी वस्तुएँ बेच रहा है। गैट और डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के बाद ही आप सहयोगी देशों में अपना व्यापार विस्तारित कर सकते हैं। यह भी तय है कि कुछ पाओगे, तो कुछ खोना पड़ेगा। अंतर्राष्ट्रीय कानून आपके संपूर्ण लाभ के लिए होगा, लेकिन इस बात की समीक्षा करनी पड़ेगी कि कितना लाभ हो रहा है और कितना नुकसान। चाहे देश कितने भी शक्तिशाली हों, लेकिन यह देखा जाता है कि वह दूसरे देश पर कितना निर्भर है।
नयी पीढ़ी को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
सबसे पहले कि हमें अपने बैकग्राउंड पर गर्व करना चाहिए। मैं कहाँ से हूँ, इसे लेकर कभी शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। मैं जब भी अपने गाँव जाता हूँ, तो भाइयों, रिश्तेदारों से जरूर मिलता हूँ। खेतों में भी शौक से जाता हूँ। मेरे खेतों में आम के पेड़ हैं। थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर हमें उड़ना नहीं चाहिए। मैं यूरोप और अमेरिका सहित 20 देशों का दौरा कर चुका हूँ, लेकिन अपने गाँव से मोहब्बत कम नहीं होने दिया। आपको यह भी सोचना होगा कि आप समाज को क्या दे रहे हैं? मैं कोशिश कर रहा हूँ यह बताने की कि लीगल एजुकेशन समाज में किस तरह परिवर्तन ला सकता है।
आपने बिल्कुल सही कहा कि समाज में परिवर्तन के लिए कुछ करना चाहिए, लेकिन आज भी समाज में वकील को लेकर अच्छी राय नहीं है। काले को लेकर लोगों के मन में डर है कि इससे कभी सामना न हो?
मैं यह मानता हूँ कि बहुत कोशिश करने के बावजूद हम न्याय व्यवस्था की धीमी गति में तेज़ी नहीं ला सके, लेकिन धीमा ही सही कुछ तो बदल रहा है। इसे बहुत अधिक बदलना है। कम्प्यूटराइजेशन हो रहा है और तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। अदालत के घंटों में वृद्धि की बात भी हो रही है, लेकिन जितना सुधार होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। हिंदुस्तान में अदालतों में 3 करोड़ मामले लंबित हैं। सरकारों को चाहिए कि व्यवस्था में सुधार लायें। मैं एक उदाहरण देता हूँ कि नलसार की इस बात को लेकर आलोचना की जाती है कि इसके पास आउट अदालतों के पारंपारिक सिस्टम में नहीं जाते। उन्हें जाना चाहिए, लेकिन यदि वे निजी क्षेत्र में जाते हैं, तो उन्हें लाख रुपये के आस-पास वेतन मिलता है, जबकि पारंपारिक वकालत में उन्हें 10 से 15 हज़ार रुपये भी मुश्किल से मिलते हैं। ऐसे में उनकी प्राथमिकताओं में बदलाव स्वाभाविक है। इसलिये व्यवस्था में परिवर्तन जरूरी है।
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