ख़्वाब आधे देखे, वो भी पूरे नहीं कर पाया- मुज़फ्फर अली
फिल्मकार, चित्रकार, शायर और डिज़ाइनर मुज़फ्फर अली देश की उन चंद हस्तियों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी शर्तों पर कार्य किया और महान कहलाए। हालाँकि उन्होंने कई फिल्में बनाई, लेकिन `उमराव जान' ने उनको कालजयी लोकप्रियता प्रदान की। उनका जन्म 21 अक्तूबर 1944 को लखनऊ में हुआ। पिता साजिद हुसैन अली कोटवारा के राजा थे और माँ का संबंध भी मशहूर नवाबी घराने से था। प्रारंभिक शिक्षा ल-मार्टिनियर लखनऊ में हुई और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी से बी.एससी. के बाद वे विज्ञापन फिल्मों के काम के लिए कोलकाता चले गये। शुरू में सत्यजीत रे के सहायक के रूप में काम करने के बाद कुछ दिन तक उन्होंने श्याम बेनेगल और अज़ीज़ मिर्जा के साथ भी काम किया और फिर एयर इंडिया से जुड़ गये। यहाँ भी उनका काम विज्ञापन फिल्में बनाना ही था। उन्हें बचपन से ही चित्रकला से प्रेम था, यही कारण था कि वे फिल्मों में भी कलात्मकता की तलाश करते रहे। 1978 में उनकी पहली फिल्म `गमन' रिलीज़ हुई। इसके बाद उन्हें फिल्म और एयर इंडिया में से एक को चुनना था। उन्होंने फिल्मों को चुना और फिल्म `उमराव जान' बनायी। उनकी फिल्में समस्या और संस्कृति आधारित रहीं। अवध की तहज़ीब को सिनेमा के पर्दे पर पेश करने का उनका एक अलग अंदाज़ रहा। एक डिज़ानर के रूप में उन्होंने कोटवारा और अवध के आस-पास के हस्त कलाकारों को खूब प्रोत्साहित किया। हालाँकि राजनीति में भी किस्तम आज़माई, लेकिन सफल नहीं हो पाये। कश्मीर पर `ज़ूनी' फिल्म बनाने के लिए उन्होंने अपना काफी समय लगाया, लेकिन वह रिलीज़ नहीं हो सकी। हैदराबाद में एक महोत्सव के दौरान उनसे मुलाक़ात हुई और कई सारे मुद्दों पर खुलकर बातचीत करने का मौक़ा मिला। प्रस्तुत हैं कुछ अंश-
कला की दुनिया से आपकी पहली मुलाक़ात किस तरह हुई?
हर आदमी के अतराफ़ आर्ट होता है। कोई शख़्स बिना आर्ट के पैदा नहीं हुआ। आपके चारों ओर कला की कितनी ही विधाएँ, शैलियाँ, नमूने फैले हुए होते हैं। कोई इससे आगाह होता है और किसी को इसके बारे में चेतना ही नहीं होती। यह पूछा जा सकता है कि अपने भीतर कला को जानने की चेतना कब पैदा हुई। दरअसल चेतना उस समय जागती है, जब दर्द पैदा होता है। चाहे वह ललित कला हो या शायरी, जब भी कोई इन्सान के हालात को गहराई से महसूस करता है, तो उसकी समझ बढ़ने लगती है। जो इन्सान और इन्सानियत को महसूस नहीं करता, उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती। जहाँ तक मेरी बात है, जब से मैंने होश संभाला, जब से मैंने दुनिया देखी, चाहे वो मेरे माँ-बाप की नज़र से देखी हो या फिर अपनी नज़र से, कला में मेरी रुचि बढ़ती गयी। किसी बात की तलाश में जब शिद्दत बढ़ जाती है तो कलात्मकता निखरने लगती है।
जिस माहौल में आप पले बढ़े, वहाँ ऐसा क्या था जिससे कला को ऊर्जा मिलती रही?
बहुत सारी ऐतिहासिक घटनाएँ थीं। सबसे पहले तो 1857 की घटना थी, जिससे पूरा समाज हिलकर रह गया था। हमारे मूल्य बदल रहे थे। अंग्रेज़ों का डिवाइड एण्ड रूल का खेल भी अपना प्रभाव दिखा रहा था। हमारी गंगाजमुनी तहज़ीब घायल हो गयी थी। आज़ादी जब विभाजन के साथ मिली तो माहौल में फिर से तकलीफ़ें बढ़ गईं। कलाकार के लिए जिस दर्द और तकलीफ़ की ज़रूरत होती है, वह यहाँ मौजूद थी। इन घटनाओं से कला को एक धार मिली और उसकी पुकार भी सुनी गयी। हमारे माता-पिता भी प्रभावित हुए और उनसे हम तक कई बातें पहुँची। मैं लखनऊ से अलीगढ़ गया तो यहाँ शायरी का नया दौर चल रहा था। नयी चिंताएं जगाई जा रही थी। हालाँकि कुछ लोग पुरानी सोच से जुड़े हुए थे, कुछ हटे हुए थे और इसी बीच से नयी सोच के अंदाज़ पैदा हो रहे थे। लोग अपनी पहचान बना रहे थे और कुछ पूरी स्पष्टता के साथ सामने आ रहे थे। मेरा मानना है कि ये सब बातें कलाकार को झिंझोड़ती हैं। शर्त यह है कि यह झिंझोड़ उसमें जिंदा रहे, लेकिन दिखे नहीं। क्योंकि उन सारी परेशानियों को लेकर वह बौखलाया हुआ न फिरे, बल्कि उसकी तबियत में ठहराव की ज़रूरत है, जो उसे कलाकार बनाती है। कला के बारे में यूँ तो बहुत सारी बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इस बात को जानना ज़रूरी है कि कला के कई चरण होते हैं, सबसे पहले तो कलाकार प्रतिक्रियावादी होता है। यह तत्व आप पत्रकार में देखते हैं। उसका काम प्रतिक्रिया जताना होता है। दूसरा तत्व प्रतिबिंबित करने का काम है। जो कई सारी बातों को अपने भीतर समाता रहे और पूरी समझ और जिम्मेदारी के साथ उसे पेश करे।
आप समय के साथ कला
के क्षेत्र में किस तरह के परिवर्तन देखते हैं?
वक़्त के साथ माध्यम बदलता रहता है। लोगों तक पहुँचने के ज़रिये बदलते रहते हैं। सरलता और जटिलता की मात्रा भी घटती बढ़ती जाती है। पहले एक फिल्म को दिखाने के लिए बीस कैन सरों पर लेकर चलना पड़ता था। अब यह काम एक पेन ड्राइव तक सिमट गया है। लोगों तक पहुँचने और कला के प्रदर्शन के तौर तरीके बदलते जा रहे हैं। उसमें मज़ा भी है और दिक्कतें भी हैं।
मुझे शहरयार साहब के साथ कुछ यात्राएं करने का मौक़ा मिला था। पुणे में एक यात्रा के दौरान बातचीत में उन्होंने कहा था कि फिल्मी दुनिया उनके रहने के लिए नहीं थी, यह आने जाने के लिए ही ठीक है। आपके लिए यह दुनिया कैसी रही?
हिंदी मिलाप में प्रकाशित सप्ताह का साक्षात्कार की क्लिप |
मेरे लिए भी यह आने जाने वाली दुनिया रही है। मुंबई के माहौल में एहसास नाम की चीज़ वक़्ती रहती है। यहाँ की कला
कुछ अलग तरह की है। शौक़ तो है, लेकिन बदलने वाला है, कला में भी उसी तरह बदलाव आते हैं,
यहाँ की कला सच को सच्चाई से इतर अलग अंदाज़ से पेश करने
वाली है। वहाँ जो रिश्ते बनते हैं,
उनमें भी स्थिरता
नहीं है। हर आदमी में असुरक्षा का भाव है। ज़रा सा भी उसकी परवाज़(उड़ान) में कमी आयी तो वह अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगता है। यह उस व्यक्ति, समाज और दुनिया के लिए बहुत खतरनाक है। हालाँकि उस असुरक्षा के भाव से सीधे व्यक्तित्व का कोई लेना-देना नहीं होता। मुंबई में सारा खेल बज़िनेस का है। यहाँ कोई
अपनी कला को बज़िनेस की तरह उपयोग
में लाता है तो
आगे बढ़ता है। हालाँकि यह कला के साथ नाइन्साफी है,
क्योंकि कला इंसान
को इंसान से जोड़ने का साधन है। जबकि व्यापार का उद्देश्य कुछ अलग होता है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, जो यहाँ आकर ग़रीबी की
बहुत ही गहरी दलदल
में फँस गये। शायद यही वजह रही कि स्थायी रूप से मुंबई ने मुझे आकर्षित नहीं किया।
आप फैशन की दुनिया में भी काफी सक्रिय हैं?
मैं फैशन की दुनिया में भी हूँ, उससे बाहर भी हूँ। फैशन मेरे लिए प्राकृतिक चीज़ है। दस्तकारी और बुनाई का शौक़ शुरू से रहा। इस कार्य में मुझे हुस्न नज़र आता है। मैं एक नयी सीरीज़ बना रहा हूँ `वीविंग ड्रीम्स-क्राफ्टिंग लाइन्स', इसमें मैं बारह फिल्में बना रहा हूँ। दास्ताने दस्तकारी में भी चार फिल्में बनायी थीं। उसमें मैं एक समुदाय को उसकी अपनी कला की सुरक्षा के बारे में जागरूक करने का काम कर रहा हूँ। उसको फैशन से जोड़ने का काम भी मैंने किया है। मैंने पूरी फिल्मों में जो कास्ट्यूम इस्तेमाल किये हैं, जो कपड़े मॉडल्स को पहनाए हैं, वो एक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। संस्कृति की पहचान इंसान से और इंसान की पहचान पहनावे से होती है।
कहा जाता है कि भारत में फैशन की समझ को गंभीरता से नहीं लिया गया। आप क्या राय रखते हैं?
जहाँ दुकानदारी है, वहाँ कलात्मकता को अधिक महत्व नहीं रहता। आप जूहू रोड(मुंबई) पर निकल जाएँ, सौ दुकानें मिल जाएँगी। वही लहंगा, अनारकली, शेरवानी टंगी हुई है, बेलबूटे बने हुए। आप कल्चर के नाम पर क़ुबूल भी करते हैं और शादी के नाम पर वह बिकता भी है। दरअसल हमारा सांस्कृतिक संपर्क और वस्तुओं पर मुक्त होने के भाव का क़ाफ़िला कहीं भटक गया है। आप अगर लंदन या विलायत जाएँ तो आपको लगेगा कि वहाँ पहनावे का एक अंदाज़ है, उसके पीछे एक इतिहास भी देखने को मिलता है। चीज़ें वहाँ बहुत नहीं बदलती। यहाँ आप देखेंगे कि लोग रेडीमेड की शक्ल में मिलने वाले वेस्टर्न पहनावे में डूब गये हैं। इसने आपकी अपनी पहचान ख़त्म कर दी है। सोशल लाइफ के पहनावे भी बदल गये हैं। ना तो आपको अंग्रेज़ी कपड़ा पहनना आता है और न हिंदुस्तानी कपड़ा पहन पाते हैं। सब रेडिमेड बनते जा रहे हैं। मैं किसी की बुराई नहीं कर रहा हूँ, लेकिन कपड़े की दुनिया बिल्कुल अलग दुनिया है। उसे जब तक कल्चरल मिशन के रूप में नहीं देखा जाता, वह अर्थपूर्ण नहीं होगी, लेकिन हमारे पास इन सब बातों के लिए वक़्त नहीं है। हम लोग बहुत ही संकट के दौर से गुज़र रहे हैं।
क्या आपको नहीं
लगता कि लालच ने फैशन की संस्कृति को प्रभावित किया है?
मैं तो कहूँगा कि लालच ने हमें नीलाम कर दिया है। हिंदुस्तान की बज़िनेस कम्युनिटी के मूल्य काफी छोटे हैं। वो केवल नफे नुक़सान के बारे में सोचती है। वो भी क्या करेंगे क्योंकि उन्हें माहौल ही ऐसा मिला है। बहुत सी खराबियाँ हैं, लेकिन मुझे नई पौध(पीढ़ी) से उम्मीद है कि वह समाज को अच्छाई की ओर ले जाने का काम करेगी। उसे यह समझना होगा कि जब तक काम की फिलॉसफी के भीतर न जाएँ, संस्कृति के आधार की खोज न की जाए, हमारी पहचान नहीं बनेगी। चाहे वह फिल्में हों, कपड़े हों या शायरी। हालाँकि शायरी में फिर भी कोई परेशान आदमी कुछ दिल की बात कहता रहता है। मैं कहूँगा कि हिंदुस्तान ही ऐसा मुल्क है, जहाँ सब कुछ होने के बावजूद, कुछ होने के लिए किये जाने के जज्बे की कमी है।
आपकी अपनी ज़िंदगी में क्या ऐसा रहा, जिसे आप चुनौतीपूर्ण मानते रहे हैं?
कई फिल्में बनाने के ख़्वाब थे, जो एक मंज़िल पर पहुँचकर रुक गये। इस पर तो पूरी किताब लिख सकते हैं कि हमने जो आधे ख़्वाब देखे, उन्हें भी पूरा नहीं कर पाये। मैंने एक किताब में पढ़ा था, `दि ग्रेटेस्ट फिल्म नेवर मेड' हमारे दिमाग़ में भी ऐसी कई फिल्मेें हैं, जो बनी नहीं। फिर भी छोटा मोटा काम बहुत ही दिल से कर रहा हूँ।
वाह बहुत शानदार साक्षात्कार। सलीम साहब को बधाइयां
ReplyDelete- डॉ कृष्ण कुमार नाज़ मुरादाबाद
शुक्रिया नाज़ साहब!
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