शैक्षणिक विफलताओं को हराकर सफल फिल्मकार बने थे विजय मरूर
विजय मरूर हैं तो एक व्यक्ति, लेकिन
कई किरदार उनमें जीते हैं। वे फिल्मकार, रंगमंच
कर्मी,
गीतकार, लेखक, फूड क्रिटिक
और आवाज़ की दुनिया की लोकप्रिय शख़्सियत हैं। हर काम में माहिर नज़र आते हैं। शहर
के थिएटरों में चलने वाली अधिकतर विज्ञापन फिल्मों में उनकी दमदार आवाज़ सुनने वाले
को अपनी ओर आकर्षित करती है, और दीर्घकालिक प्रभाव
छोड़ती है। उनका जन्म 19 नवंबर 1956 को कड़पा
में हुआ। यहाँ रहमत अली स्ट्रीट में उनके नाना रहा करते थे। प्रारंभिक शिक्षा कोलकता
में हुई। जब उनका परिवार हैदराबाद स्थानांतरित हुआ तो वे हाई स्कूल में थे। यहाँ उन्होंने
हैदराबाद पब्लिक स्कूल में प्रवेश लिया। पिता उन्हें आईएएस अधिकारी बनते देखना चाहते
थे,
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इलेक्ट्रॉनिक्स में काफी दिलचस्पी होने
के कारण मामा समझते थे कि वे इंजीनियर बनेंगे, लेकिन
वो भी नहीं हो सका। पढ़ने-लिखने में उत्तम होने के बावजूद उनकी शिक्षा का क्रम डिग्री
से आगे नहीं बढ़ सका, लेकिन आज़ाद तबियत ने
उनको अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने का मौक़ा दिया। विज्ञापन फिल्मों के क्षेत्र में
उन्होंने बड़ा नाम कमाया। मुंबई, चेन्नई, बैंग्लूर
और हैदराबाद में सैंकड़ों विज्ञापन फिल्में बनाई और हज़ारों में अपनी आवाज़ का जादू
बिखेरा। कुछ अरसे तक दक्कन क्रॉनिकल और किंग फिशर में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया।
सप्ताह का साक्षात्कार के लिए उनसे हुए बातचीत में उनके दिलचस्प अनुभव प्रस्तुत हैं-
प्रारंभिक शिक्षा के बारे
में कुछ बताइए?
मेरी प्रारंभिक शिक्षा
कोलकाता में हुई, बांग्ला भाषा में। कान्वेंट
स्कूल था,
इसलिए अंग्रेज़ी का ज्ञान अच्छा था। स्कूल के दिनों से ही मुझे
वाद-विवाद प्रतियोगिता में काफी दिलचस्पी थी। जब हैदराबाद पब्लिक स्कूल में प्रवेश
लिया तो यहाँ 15 दिन के भीतर ही शिक्षकों ने महसूस किया कि मैं
बोलता और लिखता बहुत अच्छा हूँ। बचपन में अगर कोई तारीफ करता है, तो उत्साह
से फूले नहीं समाते। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। यहाँ आकर दसवीं कक्षा में मैंने पहली
कक्षा की तेलुगु पुस्तक पढ़ी। हालाँकि बहुत बाद में तेलुगु सीखकर मैंने तेलुगु में
गीत भी लिखे। मुझे बचपन से इलेक्ट्रॉनिक्स में दिलचस्पी थी। तलत अज़ीज़ मेरी क्लास
में पढ़ते थे। हम बहुत अच्छे मित्र रहे। उसे गाने का बहुत शौक़ था। मैंने पिताजी से
कहकर टेपरिकार्डर मंगवाया था, जिसमें पहली बार तलत अज़ीज़
की ग़ज़ल रिकार्ड की थी। उनके घर में कई बड़े कलाकार आते थे। हम हर सप्ताह कहीं जाते
और तलत का गाना सुनते। मैं लौटते हुए उर्दू ग़ज़लों का अर्थ पूछता। इस बहाने मेरी उर्दू
की समझ भी बढ़ती गयी, बल्कि मैं उल्टे तलत से
कहता रहता कि अगर इसका मतलब यह है, तो इसे
इस तरह गाया जा सकता था। वो हैरत से मेरी तरफ देखता।
आपको इंजीनियरिंग में
रुचि रहने के बावजूद क्यों उस ओर का रुख़ नहीं किया?
पिताजी चाहते थे कि मैं
आईएएस के लिए तैयारी करूँ और मामा इंजीनियरिंग करवाना चाहते थे। मेरी रुचि तो इलेक्ट्रॉनिक
वस्तुओं में थी। इतना ही नहीं, रामकोट में जहाँ हमारी
गाड़ियाँ बनती थीं, वहाँ मैंने अपने मेकेनिक
के साथ तीन महीने तक गाड़ी बनाने की जानकारी प्राप्त की। बाद के दिनों में मुझे अपनी
मोटर साइकिल बनाने के लिए मेकेनिक के पास जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी, लेकिन
मुझे पढ़ाई के लिए इंजीनियरिंग पसंद नहीं आयी। पढ़ने के लिए पहले दिल्ली गया, वहाँ दिल
नहीं लगा तो चेन्नई गया। यहाँ दो साल पढ़ने
में प्रथम श्रेणी का छात्र रहा। मेरी सांस्कृतिक गतिविधियों को देखते हुए मुझे कॉलेज
में कल्चरल सेक्रेटरी बना दिया गया। किसी भी विद्यार्थी को मेरे हस्ताक्षर से छुट्टी
मिल जाती,
लेकिन आश्चर्य की बात यह रही कि मेरी सांस्कृतिक गतिविधियों
की प्राचार्य द्वारा तारीफ के बावजूद, हाज़री
कम होने की वजह से मुझे अंतिम वर्ष की परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया। हालाँकि आईआईएम
अहमदाबाद में प्रवेश का पत्र मेरे हाथ में था, लेकिन
डिग्री बिना उत्तीर्ण हुए मैं वहाँ प्रवेश नहीं पा सकता था। मैंने प्रिंसिपल को समझाने
की कोशिश की, लेकिन काम नहीं बना और फिर बिना अफसोस किये हैदराबाद
चला आया। पढ़ने से दिल पूरी तरह ऊब चुका था। यूँ भी मैंने उन तीन सालों में ऐसा कुछ
नहीं सीखा था, जो वहीं रहकर सीखा जा सकता था। पिताजी को खुश
करने के लिए मैंने डिग्री अंतिम वर्ष के विषयों की परीक्षा ढ़ाई वर्षों में पास की।
आईआईएम बैंगलूर में प्रवेश मिलने के बावजूद छह महीने से ज्यादा नहीं रह सका और कॉलेज
में जमा ज़मानत राशि भी दोस्तों पर उड़ाकर घर चला आया।
अपने भीतर छुपे कलात्मक
गुणों से पहली बार कब मुलाकात हुई?
वाद विवाद प्रतियोगिता
में दिलचस्पी शुरू से रही, जिसका लाभ भी कहीं- कहीं
हुआ,
लेकिन जहाँ तक लेखन और आवाज़ का संबंध है, अलग- अलग
घटनाओं में अचानक अपने भीतर छुपी इस कलात्मक सूझबूझ से रू-ब-रू हुआ। पिताजी शिक्षा
में मेरी अरुचि से नाराज़ थे। उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। उन दिनों वीएसटी
के चेयरमैन की पत्नी मिसेज़ पिल्ले एक विज्ञापन एजेंसी चलाती थीं। उन्हें मैंने बताया
कि नौकरी की तलाश में हूँ, तो उन्होंने अपने ही कार्यालय
में 200 रुपये
मासिक पर नौकरी दे दी। जहाँ दूसरे ही महीने मेरा वेतन बढ़ाकर 600 रुपये
कर दिया गया। वहाँ मेरा काम एकाउंट देखने के साथ-साथ लिखा हुआ विज्ञापन और रिलीज़ कार्ड
ग्राहक कंपनियों और समाचार पत्रों के कार्यालय तक पहुँचाना था। कई बार ग्राहक उन विज्ञापनों
की स्कि्रप्ट को पसंद नहीं करते थे, लेकिन
उन्हें सही करने का काम मेरा नहीं था। इसके बावजूद ग्राहक के कहने पर मैंने उनके कार्यालय
में ही उसमें सुधार किया। जब इस संबंध में मैंने विज्ञापन लेखिका क्रिएटिव हेड से कहा
कि उनके लिखे विज्ञापन ठीक नहीं हैं तो हंगामा हो गया और मुझे वह नौकरी छोड़नी पड़ी।
तत्काल मुझे 1200 रुपये मासिक पर दूसरे कार्यालय में विज्ञापन
लिखने की नौकरी मिल गयी। कुछ लोगों ने मेरा काम देखकर मुंबई जाने का सुझाव दिया। मुझे
अपने ऊपर विश्वास नहीं था और ना ही मैं मुंबई जाकर ट्रेनों में भटकना चाहता था। इसलिए
चेन्नई में जान पहचान टटोली और पहली बार काम के लिए हैदराबाद से बाहर किसी और शहर का
रुख किया। यहाँ आकर मैंने देखा कि मेरे जैसे कई तुरुम खान यहाँ मौजूद हैं। फिर भी दो
साल में विज्ञापन फिल्मों के स्कि्रप्ट लेखक के रूप में मेरी पहचान बन गयी। एक दिन
मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस तरह लिख रहा हूँ, निर्देशक
उस तरह फिल्म नहीं बना रहा है। मैंने फिल्म निर्माण के बारे में सीखना शुरू किया और
खुद फिल्में बनानी शुरू कीं। लगभग ढाई साल के बाद मुझे लगा कि अब मुझे मुंबई जाना चाहिए।
इस तरह मुंबई का रुख हुआ।
आप मुंबई में अपनी शर्तों
पर काम करने का इरादा रखते थे?
बिल्कुल! मैं ट्रेन में
सफर नहीं करना चाहता था। काम और घर की दूरी अधिक न हो, यह भी
पहले से ही तय था। और अपनी शर्तों पर रहने का मौका मिल भी गया। मुंबई में फोरहैन्स
उत्पाद के लिए मैंने फिल्म लिखी। प्रह्लाद कक्कड़ उसे बना रहे थे। जब फिल्म बनी तो
मुझे पसंद नहीं आयी, जबकि वो कस्टमर को पसंद
आ गयी थी। फिरभी मैंने उनसे कहा और उनके नाराज़ होने की संभावनाओं के बावजूद हम बिड़ला
कंपनी के मनोज माहेश्वरी से मिले और मैंने अपनी बात रखी तो उन्होंने मुझे फिर से फिल्म
बनाने का अवसर दिया। फिल्म बहुत अच्छी बनी और उन्होंने पसंद भी की, हालांकि
प्रह्लाद कक्कड़ कुछ देर के लिए मुझसे नाराज़ ज़रूर हुए।
स्कि्रप्ट लिखने और फिल्में
बनाने के दौरान अपनी आवाज़ के इस्तेमाल का ख़याल आपको कैसे आया?
मुंबई में उन दिनों प्रताप
शर्मा आवाज़ की दुनिया के ख़ुदा माने जाते थे। वे भी अपनी शर्तों पर जीते थे। पंजाबी
परिवार से थे, लंदन में पढ़े थे, लेकिन
आवाज़ की प्रतिभा के चलते वे इस उद्योग में आये थे। जब तक उनकी टेबल पर 5000 रुपये
नहीं रखे जाते थे, तब तक वे अपना काम शुरू
नहीं करते थे। यह 1980 की बात है। उन दिनों
यह काफी बड़ी रक़म हुआ करती थी। वार्डन रोड पर उनका फ्लैट था। मर्सिडीज़ में घूमते
थे। मुझे लगा कि आवाज़ तो मेरी भी अच्छी है। मैंने निखिल कपूर से इस विषय पर चर्चा
की और हम अपनी स्कि्रप्ट लिखने की नौकरी से हटकर वाइस ओवर का काम करने लगे। मुझे एक
वाइस ओवर के 3000 रुपये मिलने लगे। सप्ताह में बीस-तीस हज़ार
रुपये उन दिनों आज के 9-10 लाख रुपये के बराबर हुआ
करते थे। हम वीकेंड पर घूमने निकल जाते। हवाई जहाज़ से जाते, फाइव स्टार
होटल में रुकते। शादी के बाद जब कार्यालय से दूर रहने का प्रस्ताव आया तो मैंने मुंबई
छोड़कर फिर से हैदराबाद का रुख़ किया।
हैदराबाद में उन दिनों
विज्ञापन फिल्मों का क्या हाल था?
बहुत अधिक फिल्में यहाँ
नहीं बनती थी। मैं भी साल में एक दो फिल्में ही बनाता था, लेकिन
मुंबई,
दिल्ली, चेन्नई और बैंगलूर के
संपर्कों के साथ काम करता गया। यहाँ आने के बाद हालांकि शुरू में चार साल तक मैंने
मुफ्त में वाइस ओवर दिया। मैं समझता था कि आवाज़ में मेरा अपना क्या है, यह तो
भगवान की दी हुई है, लेकिन बाद में मुझे पता
चला कि मेरी आवाज़ के लिए फिल्म निर्माता-निर्देशक रुपये लेते हैं तो मैंने भी अपनी
आवाज़ की कीमत तय की। सुबह से लेकर रात देर गये तक रिकार्डिंग में व्यस्त रहने लगा।
फिर भी मैंने डबिंग का काम नहीं किया। तीसरे पक्ष के रूप में ही मैंने विज्ञापन फिल्मों
के लिए अपनी आवाज़ दी।
हिंदी मिलाप मेंं प्रकाशित साक्षात्कार की क्लिप |
कौनसी फिल्म के लिए अपनी
आवाज़ देकर आपको अधिक खुशी हुई?
एविटा फर्नांडीज़ के पिता
डॉ.फर्नांडीज़ के जीवन पर एक डाक्युमेंटरी बनी थी। उसकी स्कि्रप्ट पढ़कर मैं काफी प्रभावित
हुआ था। उसको मैंने अपनी आवाज़ दी। यह फिल्म रवींद्र भारती में दिखाई गयी थी, मैं नहीं
जा सका था। रवींद्र भारती से ही मेरे दोस्त डॉ. नीरज ने मुझे फोन किया और कहा कि तुम
यहाँ होते तो देखते कि तुम्हारी आवाज़ में कितना असर है। हॉल में कई लोग रो रहे हैं।
एक और घटना बड़ी दिलचस्प है। रामोजी फिल्म सिटी की विज्ञापन फिल्मों के लिए मेरी आवाज़
ली जाती। मुझे लगता कि इसमें कुछ खास नहीं है। एक दिन मुझे कहा गया कि रामोजी राव मोदी
को दिखाने के लिए फिल्म बनाना चाहते हैं। उसकी स्कि्रप्ट मुझे अच्छी नहीं लगी। मैंने
कहा कि मैं खुद स्कि्रप्ट लिखूँगा, वे मान
गये और मैंने रामोजी फिल्म सिटी जाकर उसकी रिकार्डिंग की। जब वो फिल्म बनकर तैयार हुई
तो सुनकर खुद मेरे रोंगटे खड़े हो गये।
वाइस ओवर की दुनिया में
काम करने वाली नयी प्रतिभाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
आवाज़ यूँ तो खुदा की
अनमोल भेंट है, लेकिन किसी-किसी के पास इसका सबसे श्रेष्ठ नमूना
मौजूद है,
जैसे अमिताभ बच्चन। उन्होंने आवाज़ की अभिव्यक्ति के उत्तम उदाहरण
प्रस्तुत किये हैं। आज मैं नये लोगों को देखता हूँ तो महसूस होता है कि चिल्लाना ज्यादा
हो गया है। आश्चर्य इस बात पर है कि माइक सामने रखकर भी चिल्लाते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री
वाजपेयी से सीखना चाहिए, वे माइक पर उस समय की
तकनीक को बेहतर तरीके से समझते थे। उत्साह वोल्यूम बढ़ाने से नहीं आता, बल्कि
आवाज़ की कलात्मक प्रस्तुति से आता है।
Very Nice कौनसी फिल्में चल रही है? Thank.
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