हिन्दी का अपना कोई समाज नहीं - डॉ. अरुण देव
डॉ. अरुण देव हिन्दी के समकालीन लेखकों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अरुण देव बिजनौर जिले के नजीबाबाद के एक सरकारी डिग्री कॉलेज में असोसिएट परेफेसर हैं, लेकिन वेब पत्रिका `समालोचन' के संपादन के ज़रिए उन्होंने हिन्दी साहित्य के पाठकों में अपनी खास जगह बनायी है। उनका जन्म 16 फरवरी, 1972 को उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर में हुआ। जेएनयू से स्नातकोत्तर की शिक्षा परप्त करने के बाद उन्होंने पीएचडी की उपाधि परप्त की। उनकी `क्या तो समय, कोई तो जगह हो' जैसी कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से उन्हें सम्मानित किया गया। अरुण देव क से कविता के वर्षगाँठ कार्यक्रम में भाग लेने हैदराबाद आए, तो उनसे कुछ खास मुद्दों पर बातचीत हुई। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश ः-
समालोचन वेब पत्रिका के बारे में कुछ बताइए?
समालोचन वेब पत्रिका का संपादन गत 6 वर्षों से कर रहा हूँ, जो इस समय हिन्दी ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में भी अच्छी पत्रिका मानी जाती है। कई समाचार-पत्रों और टीवी चैनलों ने भी उसका जिक्र किया है। मराठी में जब सैराट फिल्म आयी, तो मराठी में तो उस पर काफी लिखा गया, लेकिन हिन्दी में कुछ सामग्री उपलब्ध नहीं थी। समालोचन में उस पर 12 लेख छापे गये। अंग्रेज़ी और मराठी में छपे लेख भी उसमें प्रकाशित किये गये। छह साल से 1 मिलियन से अधिक हिट उस पर आये हैं। कई समकालीन लेखक इस पर लिख रहे हैं। दूसरी भाषाओं, जैसे मराठी और बांगला का साहित्य तो अनुदित होकर पेश किया जा रहा है। साथ ही विदेशी भाषाओं के भी अच्छे साहित्य का अनुवाद आ रहा है। खास बात यह है कि पत्रिका के कार्यालय में चपरासी से संपादक तक सभी भूमिकाएँ मैं संभालता हूँ। महीने में लगभग 15 पोस्ट इसमें दिये जाते हैं।
इस समय भारतीय भाषाओं खास तौर पर हिन्दी में साहित्य की चोरी तेज़ी से बढ़ी है। हालाँकि वेब पर ऐसे सॉफ्टवेयर भी आ गये हैं, जो इसकी पहचान कर सकते हैं। इसके बावजूद लोगों में रचनात्मकता कम होती जा रही है। कॉपी पेस्ट की प्रवृत्ति वढ़ती जा रही है। इस समस्या को आप कैसे देखते हैं?
जहाँ तक समालोचन की बात है, तो यह काफी रिफाइन और गंभीर मंच है। इस पर कॉपी पेस्ट करने वाले लोगों के आने की संभावना काफी अधिक है। जहाँ तक इस मंच से कॉपी कर दूसरी जगहों पर पेस्ट करने की बात है, इसकी बहुत कम संभावनाएँ हैं। इसलिए भी कि इसके लेख ढाई-तीन से दस हज़ार शब्दों के आस-पास होते हैं। इसलिए व्हाट्सअप या अन्य स्थानों पर इसकी तात्कालिक उपयोगिता कम हो जाती है। जहाँ तक प्रिंट मीडिया की बात है, तो यहाँ ज़रूर दूसरों की चीज़ें अपने नाम पर छापने की परंपरा बढ़ी है। फेसबुक पर यदि कोई दूसरों की कविता अपने नाम से पोस्ट कर भी देता है और लोगों की नज़र में यह आ गयी, तो वह खुद बदनाम हो जाता है। कॉपी पेस्ट से कोई कवि या लेखक नहीं बन जाता।
क से कविता के हैदराबाद में आयोजित वर्षगांठ कार्यक्रम की ग्रूप फोटो में अरुण देव |
इसे किस तरह कम किया जा सकता है?
जहाँ तक व्हाट्सअप ग्रुप में साहित्यिक रचनाओं के अदान-प्रदान की बात है, तो ग्रुप एडमिनिस्ट्रेटर को बार-बार अपने ग्रुप सदस्यों को सचेत करना होगा कि जो कविता, कहानी या छोटी रचनाएँ वे इस पर पोस्ट करते हैं, उसके ऊपर या नीचे रचनाकार का नाम ज़रूर लिखें। यदि वह स्वरचित है, तो इसके बारे में भी लिखें। साथ ही इसका भी जिक्र करें कि यह रचना कहाँ से ली गयी है। इससे उसकी परमाणिकता बढ़ेगी। लोग इस बात को समझेंगे कि टेक्नोलॉजी के उपयोग में स्वनिार्मित सेंसरशिप की अत्यंत आवश्यकता है। फेसबुक पर आप शिकायत करते हैं, तो वहाँ उसे ब्लॉक भी किया जाता है।
कभी हिन्दी के साहित्यकार अपनी क़लम के बलबूते जी लेते थे, लेकिन आज आमतौर पर वेब पत्रिकाओं और प्रिंट मीडिया में हिन्दी के साहित्यकारों को आार्थिक लाभ की संभावनाएँ दूसरी भाषाओं की तुलना में कम हैं। ऐसा क्यों?
एक तो हम जिसे हिन्दी समाज कहते हैं, वह होमोजनिस समाज नहीं है। मराठी, बांगला एक समाज है। वहाँ उन भाषाओं की किताबें बड़ी संख्या में पढ़ी जाती हैं, लेकिन हिन्दी उस तरह का समाज नहीं है, बल्कि इसमें अपनी तरह के कई समाज हैं, जैसे भोजपुरी, ब्रज, अवधि, राजस्थानी व अन्य। इसके कारण भाषा का नुक़सान हुआ है। सबसे कम किताबें पढ़ने वाला यदि कोई समुदाय है, तो वह हिन्दी भाषी समुदाय है। स्थिति यह है कि किसी के संग्रह की तीन-चार सौ कापियाँ भी नहीं बिक पातीं। जिस भाषा को बोलने वाले 60-70 करोड़ बताए जा रहे हैं, साथ ही कहा जा रहा है कि यह विश्व की सबसे बड़ी भाषा है, उसमें आप 400 प्रतियाँ नहीं बेच पा रहे हैं, तो यह क्या स्थिति है? यह स्थिति शुरू से है, लेकिन शुरू में परिस्थितियाँ कुछ बेहतर थीं। प्रेमचंद के ज़माने में लोगों में नया जज़्बा था। लोग किताबें लिखकर जीवनयापन कर लेते थे। हालाँकि निराला के सामने भी समस्या थी। वो किताबें तो लिख देते थे, लेकिन प्रकाशक उन्हें पैसे नहीं देते थे। कई साहित्यकारों के सामने आार्थिक समस्याएँ रही हैं। फिल्म और पत्रकारिता में तो रोज़गार रहा, लेकिन केवल साहित्य लिखकर अच्छे दिन नहीं गुज़ारे जा सकते। जहाँ तक सरकारी पत्रिकाओं की बात है, तो वे चार हज़ार रुपये एक लेख को देती हैं। लेख लिखने के बाद प्रकाशन के लिए एक माह का इंतज़ार और साल भर में केवल एक लेख का प्रकाशन। इससे अधिक कुछ नहीं। हिन्दी उपन्यास लेखकों को पेशगी नहीं दी जाती। रॉयल्टी के नाम पर भी कुछ नहीं मिलता। हिन्दी के सबसे बड़े लेखक माने जाने वाले रामविलास शर्मा की भी साल भर की रॉयल्टी चालीस-पचास हज़ार से अधिक नहीं होती थी।
बेस्ट सेलर वाली अंग्रेजी की संस्कृति जिस तरह से पर्सनालिटी डेवलपमेंट और दूसरे विषयों की पुस्तकों में आयी है, वह हिन्दी में क्यों नहीं आ सकी?
हिन्दी में साहित्य की बिक्री शुरू से कम, लेकिन धर्म की अधिक रही है। कल्याण जैसी पत्रिका खूब बिकती थी। दूसरी ओर, लैला-मजनू के किस्से या सस्ती शेरो-शायरी जैसा पल्प फिक्शन का बाज़ार पहले भी था। आज से दस साल पहले ओम प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा जैसे अन्य लेखक खूब बिका करते थे। उनका वर्दीवाला गुंडा 10 लाख की संख्या में बिका था। केशव पंडित उन्हीं का पात्र था। उस समय ट्रेन या बस में यात्रा कर रहे चाचा, ताऊ किसी न किसी के हाथों में कर्नल रंजीत या सुरेंद्र मोहन का एक मोटा-सा उपन्यास ज़रूर दिखायी देता था। बाद में यह सारी चीज़ें टीवी ने परोसनी शुरू कर दी। सावधान इंडिया, सीआईडी या इस तरह के अन्य धारावाहिकों ने उपन्यासों का बाज़ार खत्म कर दिया है। अब दस लाख प्रतियाँ बेचने की ताकत तो सुरेंद्र मोहन में भी नहीं रही। ऐसे दौर में साहित्य के चुनिंदा पाठक ही बचे हुए हैं। कुकरी और स्वास्थ्य जैसे विषय लोगों के लिए फैशन बन गए हैं। खाने के टिप्स, आयुर्वेद या किसी और विधा से बीमारियों का इलाज, मेहंदी कैसे लगाएँ जैसी जीवनोपयोगी चीजें बिक जाती हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि टीवी के दर्शक भी कम हो रहे हैं। आप ऐसे में किताबों के भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं?
देखिये मनोरंजन के कई ऐसे साधन आज हमारे पास हैं, जो दस साल पहले अमेरिका में आ चुके थे। वहाँ किताबें खत्म नहीं हुईं। हम भी उसी राह पर चल रहे हैं, लेकिन यहाँ भी किताबें खत्म नहीं होंगी। किताबें ही क्यों, टीवी, फिल्में, नाटक कभी खत्म नहीं होंगे। ये सभी अपना रूप बदलते हुए समय के हिसाब से अपने आपको पेश करेंगे। जहाँ तक किताबों की बात है, तो यूरोप में किताबों के कंटेंट, उसके आकार और प्रेज़ेंटेशन में काफी परिवर्तन आया है। इसके चलते किताबों का आकर्षण नयी पीढ़ी में बढ़ रहा है। यहाँ किताबें मनोरंजन के दूसरे साधनों से मुकाबला करने के लिए तैयार हैं, लेकिन ऐसा हिन्दी पुस्तकों के बाज़ार में नहीं हो पाया है। कोई पत्रिका यदि पाँच साल पहले जिस तरह आती थी, आज भी उसी आकार और उसी प्रस्तुति के साथ आ रही है। यही कारण है कि कभी उनका सर्कुलेशन 5 हज़ार था, तो आज चालीस-पचास तक सिमट गया है। समय अपने आपको दोहरता है। मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा, कभी कहा जाता था कि साइकिल से मोटरसाइकिल और मोटरसाइकिल से कार काफी तेज़ है, लेकिन आज यातायात जाम होने पर साइकिल कार से आगे निकल जाती है।
Saleem ji lekhan sailee bahot hi sundor or easy presentation. Feeling proud to tell something about you. Thank you Kumarjeet Sarkar
ReplyDeleteधन्यवाद कुमारजीत जी
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