उस्ताद विट्ठल राव की विरासत में जी रहे हैं सुनिल राव
कभी-कभी लोग विरासत में ऐसी चीज़ें छोड़ जाते हैं, जिन्हें पाने के लिए उनकी बाद की नसलों को झगड़ा, विवाद या अदालतों के चक्कर काटने की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि उल्टे उन्हें पाने और उनकी हफ़िाज़त करने के लिए पूरी प्रतिबद्धता के साथ उन्हें ज़िंदगी भर के लिए समर्पित हो जाना पड़ता है। अपनी रातों की नींद कुर्बान करनी पड़ती है, तब भी कहीं लगता है कि कुछ अधूरा-सा है। सुनिल राव से मिल कर हम इस बात को बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं कि विख्यात ग़ज़ल गायक उस्ताद विट्ठल राव की छोड़ी हुई विरासत को बनाए रखने के लिए उन्हें बड़ी जद्दोजहद का सामना करना पड़ रहा है। विट्ठल राव के तीन भतीजे सुनील राव, अनिल राव और दीपक राव छोटी-छोटी महफ़िलों में ताज़गी बनाए रखने की परंपरा को निभा रहे हैं। सुनील और अनिल तो ग़ज़लें और सूफी गाते हैं, जबकि दीपक ने तबले को अपना साथी बनाया है।
सुनील का बस एक ही सपना है, वह अर्थ के लिए होने वाली भागदौड़ के बीच एक ऐसा रास्ता निकालें, जिससे वे अपने गायन में सुधार करने के साथ-साथ अपने बड़े पिताजी की यादों को ज़िंदा रखें, क्योंकि इस विरासत को उन तक पहुँचाने में उनके पिता गणपत राव और उनके गुरू लक्ष्मण राव पंचपूती का बड़ा योगदान रहा है, जो विट्ठल राव के भी गुरू थे।
सुनित के पिता गणपत राव हार्मोनियम बजाते थे। घर में विट्ठल राव जैसे नामी ग़ज़ल गायक के रहते सुनिल का मन किताबों में कम और गाने-बजाने में अधिक था। यही कारण है कि अपनी ग्रेजुवेशन की पढ़ाई अधूरी छोड़ वे अपने गुरू और ताया जी की संगत करने लगे। उनके साथ देश-विदेश घूमने का मौका सुनिल को खूब मिला। कभी-कभी ख़ुद भी ग़ज़लें गुनगुनाने लगे। कुछ दिनों तक उन्होंने रचना गायकवाड़ से भी अपने सुर सुधारे। आज उनके पास देश भर से कार्यक्रमों के लिए बुलावे आते हैं और वे जाते भी हैं, लेकिन अधिकतकर महफ़िलों में उन्हें मशहूर गीत या ग़ज़लें ही गाने के लिए कही जात्ी हैं, जो किसी विख्यात कलाकार की गायी हुई हैं। जान-पहचान की महफ़िलों में वे विट्ठल राव की गायी हुई नज़्में और ग़ज़लें जैसे ... अब के साल पूनों में....और ... मौजो साहिल से मिलो.... जैसी रचनाएँ सुना कर पुरानी यादें ताज़ा करते हैं।
सुनिल राव अपनी रचनाएँ क्यों नहीं सुनाते?
इस सवाल के जवाब में सुनिल कहते हैं, मुझे लगता है कि मुझ में क्लासिकल का जितना मज़बूत आधार होना चाहिए, नहीं है। इसके लिए कभी समय ही नहीं मिला। पहले बड़े पिताजी के साथ संगत करता था। उनके बाद अपने शोज़ में जाता रहा और जो मौका मिलता रहा, सुनाता रहा। अब सोचता हूँ कि मुझे क्लासिकल न सिर्फ सीखना चाहिए, बल्कि उसकी कसौटी पर भी खरा उतरना चाहिए।
सुनील ने अब तक मुंबई, दिल्ली, कोलकता, चेन्नई, चंदीगढ़, सिलिगुड़ी और कश्मीर में कई शो किये हैं, लेकिन उनका मानना है कि यह शो उन्हें आर्थिक तौर पर तो मदद करते हैं, लेकिन अपनी अलग पहचान बनाने में अधिक मददगार नहीं होते। वो चाहते हैं कि विट्ठल राव की गायी हुई चीजों को गायें। लोगों के बीच उन्हें रखें, ताकि विरासत का सिलसिला जारी रहे। अपने छोटे भाई अनिल के बारे में वो बताते हैं कि उन्हें गाते हुए सुन कर लोगों को विट्ठल राव की झलक मिल ही जाती है।
संगीत और संगीतकारों की अपनी अलग दुनिया है। वो रातों को जुगनुओं की तरह मनोरंजन के आसमान पर चमकते रहते हैं तो दिन में कुछ देर आराम कर दुनिया का साथ निभाने के लिए निकल पड़ते हैं। सुनिल बताते हैं कि जब कोई महफ़िल नहीं होती तो वो अपने साथियों के साथ रात 10 बजे रियाज़ के लिए बैठ जाते हैं और फिर सुबह कब होती है, पता ही नहीं चलता। जिस दिन कोई शो होता है, उस दिन भी रात बिस्तर पर पहुँचते-पहुँचते सुबह के चार बज ही जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि विट्ठल राव ने ग़ज़ल गायकी में अपना अलग मुक़ाम बनाया था। हालाँकि वे शोहरत की उन बुलंदियों तक नहीं पहुँच पाये थे, जो मुंबई में रह कर कुछ कलाकारों को मिली, लेकिन उन्होंने दुनिया भर के ग़ज़ल प्रेमियों में अपनी गायकी की छाप छोड़ी थी और उनकी कुछ रचनाएँ तो लोगों को आज भी याद हैं। वे कहते थे कि जब तक सांस में सांस है, संगीत को जीते रहेंगे। ...और अब उनकी अगली पीढ़ी के सुनिल, अनिल और दीपक राव भी इसी रास्ते पर हैं। मंज़िल आसान नहीं है, लेकिन मेहनत, लगन और संघर्ष से जो कुछ हासिल होगा, वह भी कम नहीं होगा।
सुनित के पिता गणपत राव हार्मोनियम बजाते थे। घर में विट्ठल राव जैसे नामी ग़ज़ल गायक के रहते सुनिल का मन किताबों में कम और गाने-बजाने में अधिक था। यही कारण है कि अपनी ग्रेजुवेशन की पढ़ाई अधूरी छोड़ वे अपने गुरू और ताया जी की संगत करने लगे। उनके साथ देश-विदेश घूमने का मौका सुनिल को खूब मिला। कभी-कभी ख़ुद भी ग़ज़लें गुनगुनाने लगे। कुछ दिनों तक उन्होंने रचना गायकवाड़ से भी अपने सुर सुधारे। आज उनके पास देश भर से कार्यक्रमों के लिए बुलावे आते हैं और वे जाते भी हैं, लेकिन अधिकतकर महफ़िलों में उन्हें मशहूर गीत या ग़ज़लें ही गाने के लिए कही जात्ी हैं, जो किसी विख्यात कलाकार की गायी हुई हैं। जान-पहचान की महफ़िलों में वे विट्ठल राव की गायी हुई नज़्में और ग़ज़लें जैसे ... अब के साल पूनों में....और ... मौजो साहिल से मिलो.... जैसी रचनाएँ सुना कर पुरानी यादें ताज़ा करते हैं।
सुनिल राव अपनी रचनाएँ क्यों नहीं सुनाते?
इस सवाल के जवाब में सुनिल कहते हैं, मुझे लगता है कि मुझ में क्लासिकल का जितना मज़बूत आधार होना चाहिए, नहीं है। इसके लिए कभी समय ही नहीं मिला। पहले बड़े पिताजी के साथ संगत करता था। उनके बाद अपने शोज़ में जाता रहा और जो मौका मिलता रहा, सुनाता रहा। अब सोचता हूँ कि मुझे क्लासिकल न सिर्फ सीखना चाहिए, बल्कि उसकी कसौटी पर भी खरा उतरना चाहिए।
सुनील ने अब तक मुंबई, दिल्ली, कोलकता, चेन्नई, चंदीगढ़, सिलिगुड़ी और कश्मीर में कई शो किये हैं, लेकिन उनका मानना है कि यह शो उन्हें आर्थिक तौर पर तो मदद करते हैं, लेकिन अपनी अलग पहचान बनाने में अधिक मददगार नहीं होते। वो चाहते हैं कि विट्ठल राव की गायी हुई चीजों को गायें। लोगों के बीच उन्हें रखें, ताकि विरासत का सिलसिला जारी रहे। अपने छोटे भाई अनिल के बारे में वो बताते हैं कि उन्हें गाते हुए सुन कर लोगों को विट्ठल राव की झलक मिल ही जाती है।
संगीत और संगीतकारों की अपनी अलग दुनिया है। वो रातों को जुगनुओं की तरह मनोरंजन के आसमान पर चमकते रहते हैं तो दिन में कुछ देर आराम कर दुनिया का साथ निभाने के लिए निकल पड़ते हैं। सुनिल बताते हैं कि जब कोई महफ़िल नहीं होती तो वो अपने साथियों के साथ रात 10 बजे रियाज़ के लिए बैठ जाते हैं और फिर सुबह कब होती है, पता ही नहीं चलता। जिस दिन कोई शो होता है, उस दिन भी रात बिस्तर पर पहुँचते-पहुँचते सुबह के चार बज ही जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि विट्ठल राव ने ग़ज़ल गायकी में अपना अलग मुक़ाम बनाया था। हालाँकि वे शोहरत की उन बुलंदियों तक नहीं पहुँच पाये थे, जो मुंबई में रह कर कुछ कलाकारों को मिली, लेकिन उन्होंने दुनिया भर के ग़ज़ल प्रेमियों में अपनी गायकी की छाप छोड़ी थी और उनकी कुछ रचनाएँ तो लोगों को आज भी याद हैं। वे कहते थे कि जब तक सांस में सांस है, संगीत को जीते रहेंगे। ...और अब उनकी अगली पीढ़ी के सुनिल, अनिल और दीपक राव भी इसी रास्ते पर हैं। मंज़िल आसान नहीं है, लेकिन मेहनत, लगन और संघर्ष से जो कुछ हासिल होगा, वह भी कम नहीं होगा।
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