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अम्मा रोज़गार मिल गया है...

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चुनाव के दौरान का एक दृष्य यह भी... पड़ोसी ने आवाज़ लगायी कि उसका फोन आया है। माँ दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी। फोन पर आवाज़ सुनकर उसे कुछ सुकून मिला। बेटे ने फ़ोन किया था , जो बीते दो महीनों से शहर गया हुआ है। वह फोन पर बता रहा था कि उसे रोज़गार मिल गया है। माँ खुशी से फूले नहीं समायी , लेकिन सोचने लगी कि अब कहाँ से रोज़गार मिला होगा। शहर हो या गाँव सभी जगह तो चुनावी माहौल है। ऐसे समय सरकार तो सरकार निजी कंपनियाँ भी रोज़गार के मामले में चुप ही रहती हैं , भला इसे किसने रोज़गार दे दिया ? बेटा रोज़गार की तलाश में शहर आ तो गया था , लेकिन बिना किसी कौशल के उसे मुश्किल से कोई काम मिल रहा था , वह कभी किसी दोस्त और कभी किसी रिश्तेदार के घर आश्रय लेकर दिन काट रहा था। मल्लेश को अचानक एक महीने के लिए काम मिल गया। काम भी बड़ा आसान था , बस सुबह से लेकर शाम तक निर्देशित लोगों के साथ झंडा लिये चलना   है और अगर वो कुछ कहते हैं तो उनकी हाँ में हाँ मिलाना है या दो चार नारे याद करके उसे दोहराना है। आम तौर पर शहर में बिना किसी कौशल के रोज़गार मिलना आसान नहीं है और मिल भी गया तो मज़दूरी इतनी कम क...

गुज़रे जो हम यहाँ से... मीनारों का स्मारक चारमीनार

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एक्कीसवीं सदी के अठारह साल गुज़र चुके हैं और हम दूसरे दशक के अंतिम पायदान पर खड़े हैं। बीते बीस-पच्चीस बरसों में आस-पास के वातावरण में तेज़ी से परिवर्तन आया है। कुछ चीज़ें हैं, जो धीमे-धीमें बदल रही हैं और कुछ लगातार नया आकार ले रही हैं। आइए पड़ताल करते हैं कि हमारे आस-पास गली , मुहल्ले , सड़कें चौराहे और ऐतिहासिक , सांस्कृतिक , सामाजिक एवं कलात्मक महत्व के स्थलों के आस-पास किस तरह का बदलाव हो रहा है। शुरूआत हैदराबाद के चारमीनार से ही करते हैं। ............................ परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है मीनारों का स्मारक चारमीनार मित्र अरशद और अज़हर के साथ शिल्प , इतिहास , संस्कृति और समाज को अपने ही रंग में रंगने वाला स्थल , बाग़ों , तालाबों और नवाबों के शहर का मुख्य आकर्षण और मीनारों का यह प्रतीक चारमीनार इन दिनों तेज़ी से परिवर्तनों के दौर से गुज़र रहा है। दुनिया के उन बहुत कम स्थलों में से एक , जहाँ शायद ही कोई ऐसा पल रहा हो जम कोई हलचन न रही हो। चौबीसों घंटे , साल के बारह महीने यहाँ चहल-पहल बनी रहती है। आज भी जब वाहनों का अवागमन बंद हो गया है , लोगों का इस इमार...

... वो माँ थी

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देखना मेरी ऐनक से... बीदर ज़िले के बस्वकल्याण डिपो की एक आरटीसी बस कर्नाटक-महाराष्ट्र की ग्रामीण सड़क से गुज़र रही थी। रास्ते में एक गाँव में सवार होने वालों में लगभग पचहत्तर से अस्सी साल की एक महिला भी थी। नौवारी साड़ी में कमर पर चाबियों का गुच्छा लटकाए , हुलिए और हाव भाव से लगता था कि किसी अच्छे खानदान की हैं। उम्र के असर ने चेहरे का रंग कुछ फीका कर दिया था , उम्र के हिसाब से कमज़ोंरी झलकने के बावजूद कद काठी अब भी मज़बूत थी। आम तौर पर यात्रा पर निकलने वालों के हाथ में कोई बैग या थैली ज़रूर होती है , लेकिन इस वृद्धा के पास ऐसा कुछ नहीं था। भीड़ ज्यादा होने के कारण कोई सीट ख़ाली नहीं थी , मैंने अपनी सीट से उठते हुए उन्हें बैठने का अनुरोध किया , लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वह अगले ही गाँव में उतर जाएँगी। यात्रा का कारण जानने की कोशिश में बड़ा अजीब वाक्य सुनने को मिला। ..वो वहाँ सोया पड़ा है।..वो.. कौन है यह निश्चित रूप से नहीं समझ पा रहा था और सोया पड़ा है... का अर्थ जानने की जिज्ञासा बढ़ी। ....वह मेरा बेटा है और पीकर लुढ़क गया है। ...कहने के अंदाज़ से साफ था कि...

.. उनका भी रोना रो लें

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(गुज़रे साल 2018 की डायरी से...) एक मित्र ने अपने एक नये रिश्तेदार की तारीफ करते हुए बताया कि हाल ही में जब उनकी नई बहू की परीक्षाएँ हुईं तो उन्होंने(श्वसुर ने) अपने काम से छुट्टी ली और बहू को छोड़ने के लिए परीक्षा केंद्र तक गये। इतना ही नहीं वे उसकी सारी परीक्षाओं के दिन परीक्षा केंद्र के बाहर डटे रहे। वे दर्शाना चाहते थे कि उनके लिए बहू बेटी से कम नहीं है। हालाँकि मैंने यह पता करने की कोशिश नहीं की कि क्या वे अपनी बेटी की परीक्षाओं में भी इतने समर्पित रूप से परीक्षा केंद्र पर डटे रहे थे या फिर परीक्षा केंद्र पर छोड़ते हुए अपने काम पर निकल गये थे। यह भी नहीं पूछा कि इन परीक्षाओं के दौरान उनके पुत्र महोदय अर्थात परीक्षार्थी के धर्म पति भी ऐसा कर सकते थे , क्यों नहीं किया। खैर , उनकी इस सहयोग धर्मिता को सलाम। सिक्के का एक और पहलू भी था। मुझे अपनी एक छात्रा याद आयी। वह अपने खानदान की पहली पोस्टग्रैज्वेट बनने जा रही थी। बड़े ही श्रम से खुद काम करते हुए वह अपने कॉलेज की ट्युशन फी और परीक्षा शुल्क का प्रबंध करती। उसके दिमाग़ में एक लक्ष्य था कि वह कम से कम पोस्टग्रैज्वेशन की श...

इन्सानियत ज़िंदाबाद

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एक रिश्तेदार का फ़ोन आया। वह अस्पताल में थीं , अपनी किसी मित्र की अयादत करने गयीं थीं। उन्होंने कहा , ‘ मैं तुम्हें एक अच्छी न्यूज़ दूँगी , प्रकाशित करोगे ?’   मैंने कहा , ‘ हम उसी   काम के लिए बैठे हैं और अस्पताल से कोई अच्छी ख़बर आये , इससे अच्छा क्या हो सकता है। ’ रिश्तेदार ने बताया कि किसी ने अस्पताल के उस वार्ड के सारे मरीज़ों के लिए मिनिरल पानी की बोतलें और फल भिजवाए हैं। हालाँकि उस   ‘ किसी ’   का नाम जानने की कोशिश में कामयाब नहीं हो सकीं। एक ओर लोगों को शिकायत होती है कि आज कल के अख़बार हत्या , डकैती , चोरी , रेप और धोखाधड़ी जैसी ख़बरें भरी होती हैं , वहीं शहर के सरकारी अस्पतालों के आस - पास मानव जाति की कुछ अच्छाइयों की कहानियाँ हर रोज़ मिलती हैं। कबीर ने कहा था , जाति न पूछो साधू की , लेकिन सरकारी अस्पताल एक ऐसी जगह है , जहाँ न लोग मदद करने के लिए ज़रूरतमंद की जाति नहीं पूछते , न ही फल , पानी , भोजन स्वीकारते हुए अन्नदान करने वाले की जाति पूछता है। अकसर ऐसा देखने में आया है कि मदद करने वाला व्यक्ति अपनी पहचान छुपाए रखता है। उसकी एक ही पहचान हो...

अताउल्लाह खान - जिन्हें गाना सुनने पर पीटा जाता था

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(आज अताउल्लाह की गायी एक पुरानी रचना सुन रहा था। उन पर लिखा एक पुराना लेख डायरी में मिल गया। पेश है।) भारतीय उप महाद्विप में कई ऐसे कलाकार हुए हैं , जिन्होंने अपनी गायकी से बिल्कुल अलग जगह बनाई है , उस सूची में   अताउल्लाह   खान महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक ऐसा कलाकार जिसकी गायकी में ही नहीं बल्कि ज़िंदगी में भी दर्द की कई अनकही दास्तानें मौजूद हैं। उनके द्वारा गायी गयी ग़ज़लों के विषय भी दर्द की अभिव्यक्ति का निराला अंदाज़ रखते हैं। ऐसा लगता है कि यह उनके गाने के लिए ही लिखे गये हैं। अस्सी के दशक में अतालउल्लाह पापुलर होने लगे थे। हालाँकि जहाँ नुसरत फतेह अली ख़ान , मेहदी हसन और ग़ुलाम अली जैसे कलाकारों का दबदबा हो , वहाँ   अताउल्लाह   खान जैसे कलाकार का अलग अंदाज़ लोगों को आकर्षित करना मुश्किल था , लेकिन वो उभरे और उभरते रहे। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जासकता है कि 1995 में गुलशन कुमार जब अपने भाई कृष्णकुमार के लिए फिल्म बेवफा सनम बना रहे थे तो न केवल   अताउल्लाह   की लोकप्रियता को भुनाया गया , बल्कि उनकी लोकप्रिय ग़ज़लों को स...

ट्रायल रिंग से बाहर

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कुछ लोग होंगे , जो दूसरों की जेब काटकर खुश होते हों , लेकिन कुछ तो ऐसे भी मिलेंगे, जो जेब कटवाकर भी खुश होते हों। इतना ही नहीं, कभी तो हम स्वेच्छा से जेब कटाकर भी अंजाने में अपने नुक़सान के भागीदार बनते हैं। दूसरे की क्या सोचें , हो सकता है , कभी अपने पर भी ऐसा कोई लम्हा आया हो। पिछले दिनों आरटीए लायसेंस परीक्षा के ट्रायल रिंग का अवलोकन करने का मौका मिला। यहाँ हर उस व्यक्ति के जीवन के डेढ़ दो घंटे का समय गुज़रता ही है , जिसे दुपहिया या चौपहिया वाहन चलाने का लायसेंस प्राप्त करना हो। आज कल सत्तर से अस्सी प्रतिशत लोग यहाँ जाते ही हैं। ट्रायल रिंग में उतरने वाले उम्मीदवारों को देखना दिलचस्प नज़ारा होता है। यहाँ कुछ लोग सीधे सरकारी फीस भरकर रिजेक्ट होने की संभावना के साथ आते हैं तो और कुछ पूरे विश्वास के साथ अपने एजेंट के साथ होते हैं। यदि आपकी नज़र दुपहिया के ट्रायल रिंग पर पड़ती है तो हैरत ही होगी। गड्ढों और पानी से भरे इस रिंग को देखकर एहसास होता है कि इसे नियंत्रण के साथ पार करने के लिए काफी महारत चाहिए। इसे देखकर लगा कि जो व्यक्ति इस परीक्षा को पास कर ले , उसे ही लायसेंस दिया...