अम्मा रोज़गार मिल गया है...
चुनाव के दौरान का एक दृष्य यह भी...
पड़ोसी ने आवाज़ लगायी कि
उसका फोन आया है। माँ दौड़ी-दौड़ी वहाँ गयी। फोन पर आवाज़ सुनकर उसे कुछ सुकून
मिला। बेटे ने फ़ोन किया था, जो बीते दो महीनों से
शहर गया हुआ है। वह फोन पर बता रहा था कि उसे रोज़गार मिल गया है। माँ खुशी से
फूले नहीं समायी, लेकिन सोचने लगी कि अब कहाँ से रोज़गार
मिला होगा। शहर हो या गाँव सभी जगह तो चुनावी माहौल है। ऐसे समय सरकार तो सरकार
निजी कंपनियाँ भी रोज़गार के मामले में चुप ही रहती हैं, भला
इसे किसने रोज़गार दे दिया?
बेटा रोज़गार की तलाश में
शहर आ तो गया था, लेकिन बिना किसी कौशल के उसे मुश्किल से
कोई काम मिल रहा था, वह कभी किसी दोस्त और कभी किसी
रिश्तेदार के घर आश्रय लेकर दिन काट रहा था। मल्लेश को अचानक एक महीने के लिए काम
मिल गया। काम भी बड़ा आसान था, बस सुबह से लेकर शाम तक
निर्देशित लोगों के साथ झंडा लिये चलना है और
अगर वो कुछ कहते हैं तो उनकी हाँ में हाँ मिलाना है या दो चार नारे याद करके उसे
दोहराना है।
आम तौर पर शहर में बिना
किसी कौशल के रोज़गार मिलना आसान नहीं है और मिल भी गया तो मज़दूरी इतनी कम कि
अपना ही पेट न भर पाये तो गाँव में उम्मीद लगाये परिवार को क्या भेजेंगे। मल्लेश और
उसकी तरह के कई लोगों के लिए इन दिनों जैसे छोटी सी लाटरी निकल आयी है। रुपया तो
मिलेगा ही तीन वक़्त का खाना, रहने के लिए जगह और
शाम तलब हो तो बोतल भी।...आगे का आगे देखेंगे, एक महीने के
लिए तो इंतज़ाम हो गया है।
शहर के एक फंक्शन हाल के
पास चाय की दुकान पर मल्लेश की कहानी सुनी। इस कहानी के साथ-साथ ताज़ा मौसम का भी
अंदाज़ा हुआ। साथ ही यह भी पता चला कि पास का फंक्शन हाल देर तक आबाद क्यों है।
वहाँ कुछ लोग हैं, जिन्हें चुनावी रोज़गार मिल गया है। जब-जब
चुनावी मौसम आता है, नेताओं को सड़कों और गलियों में उनका
झंडा लिये घूमने वालों की ज़रूरत पड़ती है और दूसरी ओर कुछ बेरोज़गारों को रोज़गार
मिल जाता है।
एक
राजनेता की रैली की कवरेज करने पहुँचे फोटोग्राफ़र दोस्त ने बातों-बातों में बताया
कि फलाँ नेता की रैली में कई सारे चेहरे अजनबी नज़र आये। मुझे मल्लेश का चेहरा याद
आया और कुछ पुरानी बातें भी याद हो आयीं। पहले नेताओं के पास अपने कुछ वफ़ादारों
की सूची हुआ करती थी। नेता उन्हें रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए चुनाव का इंतेज़ार
नहीं करते थे। शायद यही वज्ह है कि वे नेताओं की रैलियों में रोज़गार तलाश करने
नहीं, बल्कि अपना समर्थन जताने आते थे, लेकिन अब समय बदल गया है, वफ़ादारी वर्तमान राजनीतिक
शब्दकोश में अर्थहीन हो गयी है। चलो इसी बहाने बिना पहचान के भी ऐसे लोगों को
रोज़गार मिल जाता है, जो रिश्तेदार भी नहीं हैं। एक महीने के लिए ही सही।.......
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