अभी कहें तो किसी को न एतेबार आवे
मन तरंग
ठीक है, वहाँ पानी कम ही रहा
होगा, जहाँ कश्ती डूबी थी। जी! बिल्कुल, यह पानी कुएँ, नदी, तालाब या समुद्र का
नहीं, बल्कि आँख का पानी था, शर्म का, ज़मीर का, ईमानदारी का, भरोसे का और न जाने कितनी सारी अच्छाइयों और अच्छे मूल्यों का पानी वहाँ सूख
गया था, और ऐसे में कश्ती को डूबने की ज़रूरत ही नहीं थी, वह तो बिन पानी के
मछली की तरह तड़प कर रह गयी होगी।
दर असल इन दिनों जान पहचान करके ठगने, लूटने और धोखा देने की
घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हुई है, बल्कि यह कह सकते हैं
कि सोशल मिडिया ने रिश्ते बनाना जितना आसान कर दिया है, धोखोधड़ी करना भी उतना
ही आसान कर दिया है। यह आसान भी है, अजनबी बन कर चोरी करने
या ज़बर्दस्ती करने में जल्दी पकड़े जाने का डर होता है, जबकि अपना बनकर की गयी
ठगी का पता देर से चलता है और कई बार इसमें बचने-बचाने के रास्ते भी निकल आते हैं।
बात उन खास रिश्तों की है, जिसे आदमी दोस्ती, प्रेम, मुहब्बत हमदर्दी, स्नेह और न जाने कितने ही नाम देता है।
पिछली सदी के अंतिम दशक तक भी साहित्यिक पत्रिकाओं
में एक परंपरा चलती रही। कुछ पत्रिकाओं के अंतिम पृष्ठ पर महिला-पुरुषों की
पास्पोर्ट टाइप तस्वीरें छपी होती थी। यह पत्राचार द्वारा मित्रता का कालम हुआ
करता था। क़लमी दोस्ती के उस दौर में भी सैकड़ों लोग आपस में पत्राचार करके दोस्ती
किया करते थे और जान पहचान, विचारों का आदान प्रदान और भावनात्मक लेन देन से कभी-कभार बात प्रेमालाप तक भी
पहुँच जाती थी, लेकिन बहुत कम ऐसी घटनाएँ सामने आती थी, जहाँ रिश्तों को ठगा
गया हो, शोषित किया गया हो। यह ज़रूर होता था कि कभी कभार महिला-पुरुष केयर ऑफ के
बहाने पत्राचार में अपना लिंग बदल कर फर्जी तस्वीरों से काम चला लिया करते थे।
आज के फेसबुक, वाट्सएप और सोशल
मीडिया के दूसरे साधन उसी परंपरा के आधुनिक चेहरे हैं। जहाँ इंस्टंट कुकिंग की तरह
रिश्ते भी मिन्टों और घंटों में पक जाते हैं और आपस में मेल-मिलाप भी हो जाता है, लेकिन एक दिन पता चल
जाता है कि एक ने दूसरे को छला है और ग़लती का एहसास होने तक देर भी हो जाती है।
इसलिए वाई फाई में हवा होती भावनाओं में बहने से पहले थोड़ा सतर्क होने की ज़रूरत
है, ताकि लुटे जाने पर अफसोस न हो।
नज़ीर अकबराबादी याद आ रहे हैं। शायद उन्होंने
बिल्कुल सही कहा था-
अभी कहें तो किसी को न एतेबार आवे
कि हम को राह में इक आश्ना ने लूट लिया
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