प्रो. सुनैना सिंह इन दिनों भारत के अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक
संस्थान नालंदा विश्वविद्यालय की कुलपति हैं। विश्वविद्यालय की भावी योजनाओं के
महत्व को देखते हुए उन्हें इस पद के लिए चुना है। वह इससे पूर्व अंग्रेज़ी और
विदेशी भाषा विश्वविदद्यालय(इफ्लू) की कुलपति रही हैं। शास्त्री इंडो-कैनडियन
इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष पद का निर्वाह भी उन्होंने किया है। पुराने शहर के शाह अली
बंडा में पली बढ़ी और हिंदी माध्यम स्कूल मुफीदुल अनाम की छात्रा रहीं सुनैना सिंह
ने सातवीं कक्षा तक केवल हिंदी में अपनी शिक्षा को जारी रखा था। आठवीं कक्षा के
बाद उन्हें अंग्रेज़ी माध्यम में दाखिल करव या गया। वरंगल के कान्वेंट स्कूल में
हाईस्कूल की शिक्षा के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा साहित्य में स्नातक तथा
स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और उस्मानिया विश्वविद्यालय में ही अंग्रेज़ी की
अध्यापक बन गयीं। इंडो कैनडियन इंस्टीट्यूट जाने से पहले वह विभाग की चेयरपर्सन
थीं। दक्षिण एशिया में महत्वपूर्ण महिला कुलपतियों में उनका उल्लेख होता है, बल्कि
दक्षिण भारत से वह पहली ऐसी महिला हैं, जिन्हें
अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविविद्यालयके कुलपति के रूप में चुना गया। वह भारतीय
सांस्कृतिक संपर्क परिषद की उपाध्यक्ष भी हैं। उनसे
हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं।
अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए?
मैं हिंदी माध्यम स्कूल की छात्रा रही हूँ। पुराने शहर के मुफीदुल
अनाम स्कूल में पढ़ी हूँ। वहाँ सातवीं कक्षा तक रही। उन्हीं दिनों पिताजी ब्रिस्टल
विश्वविद्यालय में विख्यात अंग्रेज़ी समीक्षक लीविस के निर्देशन में अंग्रेज़ी के
कवि कीट्स पर पीएचडी करके लौटे थे। उन्हें सरकार ने वरंगल में अंग्रेज़ी विभाग
शुरू करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। वहाँ वे अकेल प्रोफेसर थे, जो सभी पेपर पढ़ाते थे, अर्थात 80 लेखकों को
उन्हें पढ़ाना था। पिताजी खास बात यह थी कि वे ज्ञान को जीवन में स्थानांतरित करने
में सक्षम थे। मूल्य इसने मज़बूत थे, कि उन्हें कोई डगमगा
नहीं सकता था। जब वहाँ अंग्रेज़ी विभाग शुरू हुआ तो अगले पाँच वर्षों तक उस्मानिया
विश्वविद्याल के अंग्रेज़ी विभाग से सारे स्वर्णपदक विजेता वरंगल से ही आने लगे।
हालाँकि उन दिनों उस्मानिया आर्ट्स कॉलेज में प्रो. शिव के कुमार, प्रो. शाहने जैसे लोग
मौजूद थे।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई तो फिर अंग्रेज़ी से
रिश्ता कैसे जुड़ा?
जब हम वरंगल गये तो मुझे वहाँ कान्वेंट में प्रवेश दिलाया गया। मदर
सुपिरियर छुट्टियों पर गयीं थीं। वहाँ प्रिंसपल थीं सुदर्शन टीचर। अंग्रेज़ी
पढ़ाती थीं। पिताजी से उनकी मुलाक़ात हुई तो वो काफी प्रभावित हुई। उन्होंने मुझे
बिना देखे ही स्कूल में प्रवेश करवा दिया। उस समय तक मुझे अंग्रेज़ी के ए भी नहीं
आता था। क्योंकिय उस समय यहाँ अंग्रेज़ी सातवीं के बाद पढ़ाई जाती थी। जब मदर
सूपिरियर आयीं तो वह गुस्सा हुईं कि मुझे अंग्रेज़ी बिल्कुल नहीं आती तो कैसे
प्रवेश दिया गया। न बोल पाती थी, न समझ में आता था। मेरे
लिए स्पेशल ट्यूटर रखे गये। पिताजी के विद्यार्थी मुझे स्माल और कैपिटल लेटर पढ़ाए
गये। पाँच साल बहुत मुश्किल गुज़रे। शिक्षा का यह सफर काफी मुश्किल था। फिर मैंने
बीए इंग्लिश में प्रवेश लिया। बीए द्वितीय वर्ष में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में
राज्य में टॉप किया था। यहाँ तक पहुँचने के लिए मुझे सात वर्ष लग गये थे। बाद में
अंग्रेज़ी में ही मैंने अपनी मास्टर डिग्री पूरी की और पीएचडी के बाद अंग्रेज़ी की
ही प्रोफेसर बन गयी।
क्या आपने कभी सोचा था कि आप इतने बड़ी संस्था की सर्वे सर्वा
बनेंगी। पहली कभी आपने प्रशासनिक कामकाज के बारे में कभी सोचा था?
जैसा कि मैंने बताया कि मैं अंग्रेज़ी की लेक्चरर थी, फिर असोसिएट प्रोफेसर
और प्रोफेसर बनी। प्रशासनिक काम कामकाज का पहला मौका शास्त्री इंडो कैनडियन
इंस्टूट्यूट की कार्यकारी परिषद द्वारा वाइस चांस्लर के रूप में चुने जाने के बाद
मिला। इसमें कई बड़े काम करने का अवसर मिला। यूँ हर औरत घर चलाना जानती है। जहाँ
काम कर रही हैं, वहाँ के हालात उसे सिखा देते हैं। हाँ इतना ज़ूरूर है कि जब आप
चार-पाँच हज़ार लोगों के साथ काम कर रहे हैं तो उसे सामान्य से कुछ अलग तरह काम
करना पड़ता है। मैंने एक बात सीखी कि यहाँ आप एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में
अपने बारे में बिल्कुल नहीं सोचना है। अपने आपको बिल्कुल मिटाकर दूसरों के लिए, संस्था के लिए काम करना
है। ऐसे उदाहरण बिल्कुल नहीं प्रस्तुत करने हैं, जो ग़लत आदर्श प्रस्तुत
करें। कई बार ऐसा होता कि कोई अपनी समस्या लेकर आता और वह व्यक्तिगत स्तर की होती
तो मैं उन्हें दो दिन बाद आने लिए कहती, ताकि उस पर विचारमंथन
कर सकूँ और आरोपित न होऊँ कि मैंने पक्षपात किया है। प्रशासन में पूर्ण इमांदारी, एकाग्रता और संयम
अनिवार्य है। वहाँ संस्था व्यक्ति अधिक महत्वपूर्ण होनी चाहिए। चूँकि मैं एक
शैक्षणिक संस्था के प्रमुख के रूप में काम करती रही तो यहाँ मैंने देखा कि शोध
अच्छा रहे। बच्चों को कुछ न कुछ नया सीखने के अवसर मिलते रहे। शास्त्रीय
इंस्टीट्यूट में चुने जाने का कारण शायद यह हो कि मैं सभी की हाँ में हाँ भी नहीं
मिलाती थी और किसी की आलोचना भी नहीं करती थी। मेरे आइडिया उन्हें आउट ऑफ दि बाक्स
नज़र आये। संस्था के लिए लाभगायक नज़रिया प्रस्तुत करने का प्रयास मैंने किया।
मैंने 2008 में जाइँट डिग्रीज़ की बात की थी, जो अब भी आम भारतीय
विश्वविद्यालयों में शुरू नहीं हो पाये हैं।
जब आप इफ्लू(अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय) की कुलपति
बनायी गयी थीं, तो स्थितियाँ प्रतिकूल
थी। आपने किस तरह इन चुनौतियों का सामना किया?
पहले दो वर्ष काफी चुनौतीपूर्ण रहे थे। मुझे फोन पर धमकियाँ भी
मिलती रहीं थीं। मैं आसानी से किसी की बात नहीं मानती थीं। मैंने महसूस किया कि
बच्चे डिक्टेट करते हैं कि यूनिवर्सिटीज़ कैसी चलायी जाए और हेड्स उसी तरह चलाते
हैं, यह ग़लत है। युवा
विद्यार्थी काफी उम्मीदें लेकर विश्वविद्यालय आते हैं। बहुत अच्छे होते हैं। वे
मार्गदर्शन चाहते हैं, लेकिन आप यदि उन्हें
मार्गदर्शन नहीं देंगे तो फिर वो आपको भ्रमित करना शुरू कर देंगे। आपको एक प्रशासन
के रूप में उनके भविष्य के रूप में सोचना होगा। यदि कोई संस्थाप्रमुख सही
मार्गदर्शन नहीं करेगा तो उन सब विद्यार्थियों के सामने ग़लत मिसाल उपस्थित होगी।
सही दिशा दिखाने वालों से वे बहुत प्रभावित होते हैं। दस बीस साल बाद वे देश
चलाएँगे, इसलिए विश्वविद्यालयों
की जिम्मेदारी है कि उन्हें मूल्यवान बनाएँ। किसी को शिक्षक के रूप में नौकरी देते
समय भी यह देखना ज़रूरी है कि वह गुणी और विद्वान हो, क्यों कि वह लगभग तीस
से चालीस साल इस संस्था में रहेगा उसे एक बड़ी जिम्मेदारी निभानी है।
नालंदा विश्वविद्यालय
की जिम्मेदारी आपको मिली है, यह कार्य दूसरे कार्यों
से किस तरह अलग है?
नालंदा विश्वविद्यालय इंटरनेशनल यूनिविर्सिटी है। यह एक ऐतिहासिक
स्थल है। यहाँ पर चानिक्या भी थे और आर्यभट्ट भी। मौर्य साम्राज्य से पहले इसकी
शुरुआत हुई थी और फिर लगबग 8 सदियों तक यहाँ शिक्षा दीक्षा का काम होता रहा और
विश्वभर से लोग यहाँ ज्ञान की तलाश में आते थे। एक तरह से यह दुनिया का पहला
अंतर्राष्ट्रीय मल्टीडिसिप्लीन विश्वविद्यालय था। आज हम आधुनिक भारत में
मल्टीडिसिप्लीन की बात कर रहे हैं, जबकि नालंदा में
बुनियादों में यह शामिल था। यहाँ गवर्नेन्मस सिखाया जाता था। दक्षिण एशिया से लोग
यहाँ आते और वापिस जाकर अपने राजाओं के साथ काम करते थे। बख्तियार खिल्जी के
ज़माने में इसे खत्म किया गया। नालंदा जब समाप्त हुई तो पश्चिम में ऑक्सफर्ड शुरू
हुई। आज भी उस समय के अवशेष यहाँ हैं और मौर्यों की राजधानी राजगृह से 10 किलोमीटर
की दूरी पर इस नये विश्वविद्यालय का काम तेज़ी से चल रहा है।
आपके सामने इस नये काम में किस तरह की चुनौतियाँ हैं?
यह विश्वविद्यालय के पुनरोत्थान, पुनर्स्थापना तथा
पुनर्निमाण से जुड़ा मुद्दा है। अहमदाबाद के आर्किटेक्ट वास्तुशिल्पा को यहाँ पर
नयी इमारतों के निर्माण का काम सौंपा गया है, जो
उसी तरह के भवनों का निर्माण करेंगे, जो मौर्यकाल में हुआ
करता था। इसे पुनः प्रारंभ करने के लिए 2007 में विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए
संसद में मंज़ूरी मिली थी और 2014 में यहाँ कक्षाएं शुरू हुई हैं। अभी तीन स्कूल
ऐतिहासिक अध्ययन, परिस्थितिकी और
पर्यावरण विज्ञान और बौद्ध अध्ययन व तुलनात्मक अध्ययन और दर्शन यहाँ काम कर रहे
हैं। यहाँ का ऐतिहासिक अध्ययन सामान्य विश्वविद्यालयों से अलग होगा। इतिहास और
विज्ञान, विज्ञान और धर्म जैसे
कई विषयों पर यहाँ अध्ययन होगा। हो सकता है कि हम पुराने नालंदा के वैभव को जस के
तस यहाँ स्थापित करें, लेकिन उस तरह की
सुविधाएँ, उस
तरह की अध्ययन व्यवस्था, यहाँ स्थापित कर सकते
हैं।
आप आईसीसीआर की उपाध्यक्ष भी हैं, वहाँ क्या हो रहा है?
संस्कृति केवल नृत्य, चित्रकला
और संगीत नहीं है। वह जीवन को भी प्रतिबिंबित करता है। वह जीवन को मार्गदर्शित भी
करता है। साहित्य भी इसका हिस्सा है। वह मानता को को मार्गदर्शित करता है। हमने
अभी एक सर्वे कराया है। नयी संभावनाओं पर अध्ययन हो रहा है। इसके केंद्रों में
वृद्धि की योजना है। बॉलिउड फिल्मो, कुज़ीन जैसे नये विषयों
पर भी चर्चा जारी है। भारतीय हर क्षेत्र में काफी मज़बूत रहे हैं। विदेशों में
उनकी क्षमता पर अध्ययन हो रहा है। भारतीय सांस्कृति जड़ों की खोज की दिशा में भी
काम हो रहा है।
आप साहित्य की विद्यार्थी और शिक्षक रही हैं। पिछले दो तीन दशकों
से देखा जा रहा है कि लिटरेचर की ओर वही विद्यार्थी आते हैं, जो शिक्षक या शोधार्थी
बनना चाहते हैं। आपको नहीं लगता कि दूसरे पेशों के लोगों की साहित्य में रूची कम
होती जा रही है?
मुझे लगता है कि उनकी रूची कम नहीं हुई है। हाँ उन्हें अब पहले
जैसा समय नहीं मिलता। प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ी है। कई जगह हाल यह है कि एक तन्खाह
से जिंदगी की गाडी नहीं चल पाती है। मारा मारी का दौर है। इतना समय उनके पास नहीं
है कि दूसरी रूचियों की ओर ध्यान दें। सुबह से रात तक,बल्कि वीकेंड्स पर भी
काम करना पड़ता है। यह अलग बात है कि जिनको नहीं करना है, वे तो कुछ भी नहीं
करते। वे कहीं भी एक्सपर्ट नहीं होते।
इस मारा मारी को आप भविष्ट में कैसे देखती हैं?
ज़िंदगी चुनौतियों से भरी है, वह आसान नहीं है।
रास्ते आसान मिल जाएँगे, ऐसा समझलेना भी ग़लत
होगा। बहुत कम लोगों को आसान रास्ते मिलते हैं। हमें यह समझना होगा कि मुश्किल राह
पर भी अपना संयम बनाए रखें। मानवीय मूल्य की रक्षा करें। लिटरेचर और आर्ट में रूची
बना रहे तो अच्छे मनुष्य और अच्छे कर्मी के रूप में छवि बनायी जा सकती है। एक अच्छे
इन्सान होंगे तो क़दम मज़बूती से जमा सकेंगे। मुझे लगता है कि किसी असंभव काम को
संभव बनाना है तो आपको दो सो प्रतिशत काम करना होगा।
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