भाषाओं को बचा सकती है टेक्नोलॉजी : प्रो. हरजिंदर सिंह
प्रो. हरजिंदर सिंह लाल्टू आईआईआईटी- हैदराबाद में कंप्यूटेशनल
नैचरल साइंस के प्रोफेसर हैं और मानविकी में कमाल रखते हैं। उन्हें तीन दशक से अधिक
अध्यापन का अनुभव है तथा विज्ञान और टेक्नोलॉजी से जुड़कर काम कर रहे हैं। उनका जन्म 10 दिसंबर,
1957 को कोलकाता में हुआ। आईआईटी कानपुर से एमएससी की शिक्षा पूरी
होने के बाद वे अमेरिका चले गये और यहाँ से प्रिंस्टन विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र
में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। लगभग 20 वर्षों
तक उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। इसके बाद आईआईआईटी, हैदराबाद, चले आये। शिक्षा के दौरान वे विभिन्न वैचारिक आंदोलनों का हिस्सा रहे। उन्होंने
अमेरिका और पंजाब के अलावा मध्य-प्रदेश में कुछ संस्थाओं के साथ सामाजिक आंदोलनों
तथा अभियानों में भाग लिया। खास बात यह है कि रसायन और प्रौद्योगिकी जैसे विषयों में
दिन रात लगे रहने के बावजूद उन्होंने हिन्दी साहित्य को क़रीब से जिया है। उनके 7 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही बांग्ला और अंग्रेज़ी से अनुवाद की
उनकी कृतियाँ भी प्रकाशित हुईं। उन्होंने बच्चों के लिए भी किताबें लिखीं। मानवाधिकारों
को लेकर वे कई आंदोलनों में शामिल हुए। सप्ताह के साक्षात्कार के अंतर्गत उनके साथ
हुई बातचीत के मुख्य अंश प्रस्तुत हैं :
प्रारंभिक
जीवन के बारे में कुछ बताइए?
जन्म
कोलकता में हुआ। पिताजी पंजाबी सिख थे और सरकारी विभाग में ड्राइवर। माँ बंगाली थीं।
एक मिले-जुले परिवार में मेरी परवरिश हुई। हम लोग चार भाई-बहन थे।
आार्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि किसी बड़े स्कूल में पढ़ते। एक हिन्दी स्कूल
में दाखिला लिया और वहीं से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। इकबालपुर और बिलियाघाटा
में कुछ दिन रहने के बाद हम हेस्टिंग्स में आ गये। यह गंगा के नज़दीक का इलाका था। 19 साल की उम्र तक मैं यहाँ रहा। प्रेसिडेन्सी कॉलेज, कोलकाता, से बीएससी करने के बाद मैं आईआईटी कानपुर आ गया। हिन्दी और गणित मेरे पसंदीदा विषय
थे।
गणित
और साहित्य से आपकी दिलचस्पी थी, फिर आप
रसायन शास्त्र की ओर कैसे गये?
उस ज़माने
में बच्चों के पास आज की तरह विकल्प नहीं होते थे। आज बच्चे कंफ्यूज़ रहते हैं कि उन्हें
क्या करना है। हमारे सामने वह समस्या नहीं थी। स्कूल के बाद बीएससी करना है, यह दिमाग़ में था। दूसरा कारण यह भी था कि मुझे राष्ट्रीय विज्ञान छात्रवृत्ति
मिली थी। इसके मिलने पर आप मेडिकल और इंजीनिय्रिंग नहीं कर सकते थे। यह छात्रवृत्ति
बीएससी के दौरान डेढ़ सौ और एमएससी के दौरान ढाई सौ रुपये होती थी, लेकिन उस दौर में इसका महत्व अधिक था। पढ़ाई के दौरान घर में उत्साहवर्धक माहौल
नहीं था। नौकरी करने का दबाव था। हालाँकि मैंने आईआईटी, कानपुर, की प्रवेश परीक्षा लिखी थी। इसका परिणाम भी अच्छा आया था, लेकिन आगे पढ़ने की संभावनाएँ कम होती दिखाई दे रही थीं। एक दिन मेरे एक मित्र
की माँ ने मुझे समझाया और खूब डाँटा भी। इसी के चलते मैंने आईआईटी कानपुर जाने का मन
बनाया। यहाँ शुरू के 6 महीने काफी दिक्कत भरे रहे, क्योंकि स्कॉलरशिप तो जाते ही
मिलने वाली नहीं थी। अन्य खर्चे भी निकालने थे। उस ज़माने में लोन नहीं मिलता था। अगर
मिलता भी था, तो हम उसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। खैर, एमएससी
पूरी की और पीएचडी के लिए अमेरिका चला गया। पाँच साल बाद वहाँ शिक्षा पूरी कर लौट आया।
अमेरिका
जाने के हालात कैसे बने?
यह काफी
दिलचस्प है। जिन वैचारिक माहौल में मैं पला-बढ़ा और सक्रिय था, उसमें रहकर अमेरिका जाने का मन नहीं था, लेकिन परीक्षा लिखी थी
और वहाँ से कॉल आ गया था। केमिस्ट्री के टेस्ट में दुनिया में सबसे ज्यादा नंबर मिले
थे। पिताजी साल में एक महीना पंजाब जाते थे। पंजाब जाने के दौरान वे कानपुर स्टेशन
पर उतरे थे। उनसे बातचीत के दौरान मैंने बताया था कि मैं अमेरिका नहीं जाऊँगा, लेकिन उनके मन में था कि मैं पढ़-लिखकर कुछ बड़ा काम करूँ। मेरे
इनकार करने पर वे उदास हो गये। फिर मुझे लगा कि इसके बारे में कुछ सोचना चाहिए। मैंने
उसके बाद प्रिस्टन यूनिवर्सिटी को लिखा कि मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं, तो उन्होंने मुझे पैनम एयरलाइन्स का फर्स्ट क्लास टिकट भेज दिया, जो मेरे जीवन की पहली हवाई यात्रा थी। इसके बाद मैंने कई हवाई यात्राएँ कीं, लेकिन कभी फर्स्ट क्लास का टिकट नहीं लिया। मेरे मन में ऐसी कोई योजना नहीं थी
कि मुझे बड़ा वैज्ञानिक बनना है। इसलिए अमेरिका से लौटकर पंजाब यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री
विभाग में नियुत्त हो गया। किसी एनजीओ के साथ काम करने का इरादा था। इसलिए डेढ़ साल
में ही मैं यूजीसी की फेलोशिप लेकर एकलव्य नामक संस्था के साथ काम करने मध्य-प्रदेश
चला आया। यहाँ शिक्षा में नवाचार के लिए काफी काम किया।
आम तौर
पर लोग अमेरिका जाने के बाद वहीं रहना पसंद करते हैं। आपको विज्ञान के क्षेत्र में
वहाँ काफी संभावनाएँ थीं, तो फिर लौट क्यों आये?
यह बिल्कुल
सही है और सीधी-सी बात है कि वहाँ लोगों की माली हालत यहाँ से बेहतर होती है। उस ज़माने में और
भी ज्यादा फर्क था। बहुत सारी चीज़ें जो वहाँ मिलती थीं, यहाँ नहीं मिलतीं। मेरे जैसे कुछ लोगों के साथ मामला कुछ अलग होता है। मुझमें यह
जुनून था कि मैं वापस अपने मुल्क आकर काम करूँगा। मैं वहाँ भी आंदोलनों और लड़ाइयों
में हिस्सा लेता रहा। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को लेकर स्थानीय सरकार के खिलाफ आर्थिक
प्रतिबंध लगाने की माँग को लेकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस लड़ाई लड़ रही थी। इस लड़ाई
के समर्थन में हम दो भारतीय विद्यार्थी स्थानीय विद्याार्थियों के साथ शामिल हुए और
फिर गिरफ्तार। हमारी माँग थी कि जो अमेरिकी निजी विश्वविद्यालय दक्षिण अफ्रीका की कंपनियों
में निवेश कर चुकी हैं, उसे वापस लें। हमारे खिलाफ कानूनी कार्रवाई हुई, लेकिन
विश्वविद्यालय से निकाला नहीं गया। कभी मेरे मन में यह भी आया कि मैं रंगभेद के खिलाफ
अपनी डिग्री लेने से इनकार कर दूँ। यह सब बातें थीं, जो मुझे
वापस अपने देश आने को प्रेरित करती थीं। हालाँकि बाद में एक और बार मैं अपनी बेटी के
इलाज के लिए अमेरिका गया, वहाँ उपचार के उन्नत तरीके थे और मन हुआ कि वहीं रहूँ, लेकिन पत्नी इसके लिए राज़ी नहीं हुई।
अमेरिका
और भारत की तत्कालीन शिक्षा पद्धति में आपको क्या फर्क नज़र आया?
आजकल
तो हमारा सीखने का तरीका काफी बेहतर हो गया है, लेकिन पहले काफी अंतर था।
बहुत बड़ा फर्क तो यह है कि आधी ज़िंदगी अंग्रेज़ी सीखने में ही गुजर जाती है। हम लोग
यहाँ शब्द सीखते हैं, धारणाएँ नहीं। विज्ञान में भी हम परिभाषाएँ सीखते हैं। अपने हाथ से काम करके सीखना
तथा चारों ओर जो माहौल है, उससे सीखने की आदत हममें नहीं है। कोलकाता में रहते हुए मैं कभी तारों को नहीं
देख पाया था। इसलिए तारों को देखकर मन में जो सवाल आते हैं, जो उत्सुकता और जिज्ञासा होती है, वो नहीं उपजी। हमारा सारा
दबाव इम्तेहानों पर होता है,इसलिए हमारे अंदर जो क़ुदरती वैज्ञानिक होता
है, वह दबता चला जाता है। यह सही है कि हम वहाँ जाते हैं, तो इम्तेहानों में अच्छा प्रदर्शन करते हैं, लेकिन
जहाँ तक रिसर्च का विषय है, वहाँ का एक औसत विद्यार्थी भी हमसे काफी बेहतर होता है। भारत में खाते-पीते
बच्चों के लिए हालात बदल रहे हैं, लेकिन ग़रीब बच्चों के लिए अब
भी हालात बिल्कुल वैसे ही हैं। उनकी सारी शिक्षा किताबें पढ़ो और इम्तेहान पास करने
तक ही सीमित है। उन्हें आस-पास के माहौल से सीखने के लिए अधिक उत्साहित नहीं किया जाता। उनके अंदर की कुदरती
जिज्ञासा को दबा दिया जाता है।
साहित्य
की तरफ शुरू से ही रुझान था या फिर बाद में किसी के प्रभाव में आकर लिखना शुरू किया?
हमारे
सामने सीमाएँ बहुत अधिक नहीं थी। इतना ही सोचते थे कि पढ़-लिखकर
अध्यापक बन जाएँ। बंगाल में खास बात यह है कि यहाँ साहित्य की चेतना काफी अधिक है।
किताबें पढ़ने की संस्कृति अधिक है। बंगाल में दुर्गा पूजा और बांग्लादेश में ईद के
दौरान कुछ वाार्षिक पत्रिकाएँ निकलती हैं। उसे पढ़ने का मौका मिलता था। बांग्ला साहित्य
की एक खास बात है, जो दूसरी भाषाओं और हिन्दी में भी कम मिलती है। छोटे साहित्यकार से लेकर साहित्य
अकादमी पुरस्कार ग्रहीता तक सभी लोग बच्चों के लिए कुछ न कुछ लिखते ही हैं। महाश्वेता
देवी और ताराशंकर बैनर्जी जैसे बड़े साहित्यकारों ने भी बच्चों के लिए लिखा। ढूँढ़ने
जाएँगे, तो एक भी साहित्यकार नहीं मिलेगा, जिसने बच्चों के लिए साहित्य
लिखा हो। हालाँकि उन दिनों मैं सोचता था कि उपन्यास लिखूँ, कहानियाँ लिखूँ, लेकिन बाद में मैंने कविताएँ लिखीं। 19वीं शताब्दी में बांग्ला
भाषा के साथ दिक्कत यह रही कि इसमें बहुत बड़े पैमाने पर संस्कृताइजेशन हुआ। भाषा को
सरल बनाने के लिए रवींद्रनाथ टैगोर को अभियान चलाना पड़ा। इसका प्रभाव हिन्दी पर भी
पड़ा। मैंने महसूस किया कि हिन्दी में बोली जाने वाली भाषा का उपयोग करने का चलन कम
रहा। इससे साहित्य में बनावटीपन का प्रभाव रहा। मैंने अपने लेखन में सचेत रूप से जनप्रचलित
शब्दों का उपयोग करने की कोशिश की।
हैदराबाद
आना किस तरह हुआ?
यह संयोग
की बात है। मेरे एक मित्र अभिजित मित्रा आईआईटी, कानपुर
में थे। किसी ज़माने में मैं उनके साथ काम करता था। एक संगोष्ठी में जब बेंगलुरू जाना
हुआ, तो उनसे लगभग 26 साल बाद मुलाक़ात हुई। उन्होंने हैदराबाद में आने का प्रस्ताव रखा। वर्ष 2006 में जब मैं यहाँ आया, तो विज्ञान, शिक्षा और शोध में मेरा काम उन्हें पसंद आया। यहाँ आने के बाद विज्ञान और कंप्युटर
के रिश्तों पर नया काम शुरू हुआ। यहाँ काफी समार्पित वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।
एक दशक
से अधिक समय से आप यहाँ काम कर रहे हैं। इस दौरान ऐसी कौन-सी उपलब्धियाँ आर्जित कीं, जिससे
लगे कि विज्ञान को अधिकाधिक लोगों के लाभ के लिए उपयोग में लाया जा सका?
हालाँकि
आईआईआईटी, हैदराबाद में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि यहाँ जो काम हो,उसका
समाज पर प्रभाव पड़ना चाहिए। दिक्कत यह है कि हमारे यहाँ साइंस की जो ऊँची तालीम है, उसमें इस इस बात को बुनियादी मक़सद के तौर पर नहीं लिया जाता। समाज में विज्ञान
का प्रभाव सीधे नहीं, बल्कि अन्य तरीकों से भी पड़ता है। जैसे विज्ञान टेक्नोलॉजी के साथ मिलकर कुछ ऐसे
काम करता है कि समाज के लिए उपयोगी चीज़ें बनाएँ। बाद में पता चलता है कि यह विज्ञान
के कारण हुआ है। हमारे सोचने के तौर-तरीकों में भी परिवर्तन आता है।
आप अगर ऐसा सोचते हैं कि एक दो दिन में प्रदूषण की सारी समस्याएँ खत्म हो जाएँ, तो यह विज्ञान नहीं कर सकता। हाँ विज्ञान के सहयोग से यह कार्य टेक्नोलॉजी कर सकती
है। कंप्यूटर की वजह से नये तरह का साइंस बनना शुरू हुआ है। किसी ज़माने में बौद्धिक
विज्ञान का अधिक महत्व था और हाथ के कामों को हीन भावना से देखा जाता था, लेकिन टेक्नोलॉजी के आने के बाद यह फर्क मिटता जा रहा है। आमतौर पर पहले एक दवाई
के निर्माण को लगभग 18 साल लग जाते थे, लेकिन वही काम अब टेक्नोलॉजी की मदद से पाँच से छह सालों में पूरा हो रहा है। हमारे
साथ एक और समस्या पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से भी है। आप अच्छे वैज्ञानिक हैं, यह इस बात से तय नहीं होता कि आपने भारतीय समाज या वैज्ञानिक क्षेत्र में कितना
प्रभाव डाला है, बल्कि जो शोध कर रहे हैं, उसे अमेरिका और यूरोप में कितना
महत्व दिया जा रहा है। इन हालात में वैज्ञानिक ऐसे सवालों पर काम करते हैं, जिनका संबंध भारत की ज़मीन से कम, पश्चिम की ज़मीन से अधिक
होता है। स्थानीय सवालों पर काम करने वाले लोग बहुत कम हैं। मैं अपने बारे में व्यत्तिगत
रूप से बताऊँ, तो मैंने विज्ञान के अलावा मानविकी में काम करना शुरू किया,ताकि
लोगों को अपनी भाषा की ओर आकार्षित कर सकूँ। साथ ही भाषा, विज्ञान और टेक्नोलॉजी में कुछ काम हो। यहाँ हम विज्ञान, टेक्नोलॉजी के साथ एक सेमिस्टर में हिन्दी साहित्य भी पढ़ा रहे हैं।
देशी
भाषाओं के सामने जो संकट है, उसमें
टेक्नोलॉजी कैसे मदद कर सकती है?
हमें
बुनियादी मुद्दों की ओर ध्यान देना चाहिए कि बच्चों को दूसरी ज़बानों में पढ़ाने के
बजाय उसकी अपनी ज़बान में पढ़ाया जाए। अगर हम उसे दूसरी भाषा में पढ़ाने के लिए ज़बर्दस्ती
करते हैं, तो उसे मज़ा नहीं आता। अंग्रेज़ी ही को लें। वह अपनी ज़बान में भी कमज़ोर रहता
है और अच्छी अंग्रेज़ी भी नहीं सीख सकता। मैं यह कहूँ तो ग़लत न होगा कि हमारे बहुत
ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों ने अपने समाज के साथ विश्वासघात किया है, क्योंकि उन्होंने अंग्रेज़ी को अपनाया है। वो अपनी देशी भाषाओं को अपनाकर इन्हें
और इनके बोलने वालों को उन्नत कर सकते थे। इन भाषाओं को सरल कर सकते थे, ताकि वह व्यावहारिक हों। मैं अगर हिन्दी की बात करूँ, तो यहाँ टेक्निकल बोलचाल की काफी कमी है। अंग्रेज़ी-पंथी
और संस्कृतनिष्ठ पंथी, दोनों से हिन्दी को नुकसान हुआ। जहाँ तक जिंदा ज़बानें हैं, वह इंजीनियर्ड नहीं हो सकतीं। टेक्नोलॉजी ने यह आसान कर दिया है कि चाहे जिस भाषा
में बोलें, उसका अनुवाद शीघ्र हो सकता है। टेक्नोलॉजी का साथ लेकर हम अपनी भाषाओं को बचा सकते
हैं। उन्हें सुरक्षित कर सकते हैं। हमको यह सोचना होगा कि चीन, जापान, फ्रांस और स्पेन जैसे मुल्क अपनी भाषाओं में उन्नति कर रहे हैं,तो हम
भी ऐसा कर सकते हैं।
Bahut hi prerak sakshatkar hai sir. ..badhaai aapko
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