इतिहास केवल तिथियाँ नहीं होतीं -इतिहासकार नरेंद्र लूथर से बातचीत
नरेंद्र लूथर मूल रूप से हास्य व्यंग्यकार
हैं, लेकिन उनका यह हास्य लेखन हैदराबाद के इतिहास में खो गया
है, जिससे शहर का इतिहास रोचक हो गया है। उनकी नयी पुस्तक
`लेजेन्डोट्स' प्रकाशित हो चुकी है और आगामी 30 जनवरी को
इसका लोकार्पण बेगमपेट स्थित आईएएस असोसिएशन के हाल में प्रस्तावित है। हैदराबाद विश्वविद्यालय
में इतिहास के आचार्य डॉ. आलोक पाराशर सेन विमोचन करेंगे।
उल्लेखनीय है कि हैदराबाद के इतिहास पर लूथर साहब ने दस से अधिक किताबें लिखी हैं और
यह नई किताब हैदराबाद की लगभग 70 ऐसी दंतकथाएँ प्रस्तुत करती
हैं, जिसके ऐतिहासिक पहलू भी भी हैं। इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ी
के दो शब्द `लेजेंड्स' और `एनेक्डोट्स' का मिश्रित
करके एक नया शब्द `लेजेंडोट्स' बनया है। एक तरह से यह हैदराबाद
के बारे में आख्यान और उपाख्यानों का संग्रह है, जिसमें दंतकथाओं
को इतिहास की ऐनक से देखने का प्रयास किया गया है।
नयी पुस्तक के बारे में उनसे विशेष
बातचीत के दौरान नरेंद्र लूथ कहते हैं कि कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो सही भी
होती है और नहीं भी, लेकिन कुछ रिवायतें बिल्कुल सही होती
हैं। ऐसी ही घटनाओं की वास्तवकिता की खोज इस पुस्तक में की गयी है। निज़ामों के झंडे
के बारे मे कहा जाता है कि उसके बीच में कुल्चे का चित्र है और उसके पीछे यह कहानी
बतायी जाती है कि जब प्रथम निज़ाम मीर क़मरुद्दीन शिकार के लिए निकला तो वह रास्ते
में भटक गया और बहुत भूखा हुआ। जंगल में कुटिया डाले एक बुजुर्ग से उसकी मुल़कात हुई
और उन्होंने क़मरुद्दीन को खाने के लिए कुछ कुल्चे दिये, जिनमें से
वह केवल 7 खा सका। बुजुर्ग ने उसे और खाने के
लिए कहा, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। बुजुर्ग
ने कहा कि सात पीढ़ियों तक ही उसका खान्दान शासन करेगा। झंडे पर कुल्चे की तस्वीर के
बारे में क़मरुद्दीन ने खुद यह लिखा है कि यह कुल्चा नहीं चांद है, जो उसके नाम
का प्रतीक है। आश्चर्य यह है कि बाद में छठे निज़ाम ने कहा कि वह कुल्चा है, क्योंकि जन्ता
में मशहूर दंतकथा तो उसे मालूम थी, लेकिन खुद
उसके पूर्वज ने क्या कहा इसकी जानकारी उसे नहीं थी।
हैदराबाद के निर्माण को लेकर एक घटना
काफी मशहूर है कि उसे बादशाह जन्नत की तरह बनाना चाहते थे। इसके लिए नक्शा भी पूरी
तरह उसी कल्पना के साथ बनाया गया। दरअसल मीर मोमिन असफहान शहर से आये थे और उसे दूसरे
असफहान की तरह बनाने की योजना उन्होंने बनायी।
एक और घटना हाईकोर्ट के जज नवाब अकबर
यार जंग की है। उन्हें कृष्णास्टमी पर एक कार्यक्रम में बुलाया गया और उन्होंने इस
कार्यक्रम में कहा कि क़ुरान के अनुसार, दुनिया भर
में कई पैग़म्बर आये हैं, उनमें कृष्ण भी हो सकते हैं
और उन्होंने एक शब्द `अलैहिस्सलाम' का प्रयोग
उनके नाम के साथ किया, जो केवल पैग़म्बरों के नाम
के साथ ही मुसलमान करते हैं। इस पर काफी हंगाम हुआ और निज़ाम से मांग की गयी कि उन्हें
हटा दिया जाए, लेकिन निज़ाम ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई
नहीं की, सिर्फ इतना कहा कि सरकारी अधिकारियों
को सार्वजनिक मंचों पर सतर्क रहना चाहिए। कार्रवाई इसलिए नहीं की गयी कि उन्होंने अपना
तर्क उचित ढंग से रखा था। इस घटना की खोज के दौरान 11 अगस्त 1931 को दिया गये
गये उस भाषण की मूल प्रति भी प्राप्त हुई है।
रेज़िडेन्ट और हैदराबाद के प्रधानमंत्री
के संबंध और कोठी भवन के निर्माण की रोचक घटना भी इसमें शामिल है। सालारजंग प्रथम के
बारे में कहा जाता है कि उनकी मृत्यू के बारे में जोतिषि ने एक दिन पूर्व ही निज़ाम
के उस्ताद को इसकी जानकारी दी थी। इसका विस्तार से वर्णन पुस्तक में है। नीलोफर निसंतान
थीं। उन्हें एक कार्यक्रम के दौरान वृक्षारोपन के लिए कहा गया तो उन्होंने अपना दुःख
किस तरह प्रकट किया, उस रोचक घटना की पड़ताल भी की गयी
है।
लूथर साहब की नयी पुस्तक में शामिल
कई घटनाओं में `जय हिंद' के नारे में हैदराबाद की भूमिका
का वर्णन भी शामिल है। इस बारे में पूछे जाने पर वे बताते हैं कि हैदराबाद के एक सिविल
सर्वेंट के पुत्र आबिद हसन जर्मनी में शिक्षा के दौरान नेताजी के संपर्क में आये और
वे चाहते थे कि शिक्षा पूरी करते ही नेताजी के साथ जुड़ जाएंगे, लेकिन नेताजी
ने कहा कि तब तक देर हो जाएगी। तब वे शिक्षा अधूरी छोड़ तत्काल नेताजी के साथ हो लिये।
एक दिन जब भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में बात चली तो नेताजी के हिन्दु साथियो
ने इसे भगवा रंग देने की वाकलत की। मुसलामान साथियो ने उसका विरोध किया, सभी हिन्दू
साथियों ने एक स्वर में उसे वापिस ले लिया। इस बात से हसन इतने प्रभावित हुए कि अपना
नाम ही उन्होंने `सेफरानी'(भगवा) रख लिया।
बाद में उनके परिवार का यही नाम रहा। नेताजी ने जब नारे पर चर्चा की तो कई सारे नारों
में आबिद हसन का दिया हुआ नारा `जय हिंद' नेताजी को
बहुत पसंद आया और यही भारत के `जोश' का प्रतीक
बन गया।
एक और घटना हैदराबद के भारतीय संघ में
शामिल होने के बाद की है। तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में भाग लेने वालों में आज़ादी के
बाद दो फाड़ हो गये। एक समूह ने आंदोलन छोड़कर मुख्य धारा में शामिल होने की वकालत
की तो दूसरे ने नेहरू को साम्राज्यवादी बताते हुए आंदोलन जारी रखने पर ज़ोर दिया। बात
स्टालीन तक पहुंची। उसे तेलंगाना कहाँ है यही पता नहीं था। उसने पूछा कि क्या वहाँ
पड़ोस में कोई दूसरा देश या समुद्री किनारा अथवा वन क्षेत्र है? तीनों प्रशनों
के उत्तर `नहीं' थे। इस पर स्टालीन ने कहा कि.. मुख्य धारा
मे शामिल होने के अलावा कोई चारा नहीं है।
शोरापुर(यादागिरी के
पास का तत्कालीन पृथक राज्य) के राजा के मृत्यू की भविष्यवाणी, बेगमपेट पब्लिक
स्कूल और निज़ाम की पुत्री का पान का खर्च, क़ुली क़ुतुबशाह
की उम्र 47 साल थी या 44 साल, जैसे इतिहास
के कई रोचक तथ्यों, घटनाओं, दंतकथाओं
एवं उपाख्यानों में लूथर साहब की हास्य शैली का भरपुर पुट शामिल है।
लेखक बताते हैं अंग्रेज़ी और उर्दू
में तो वे बहुत पहले से लिखते रहे थे। हैदराबाद के बारे में जानने पढ़ने का सिलसिला
उन्होंने उसी समय से शुरू किया था, जब वे आईएएस
अधिकारी के रूप में हैदराबाद आये थे, लेकिन तत्कालीन
मुख्यमंत्री एन.टी.रामाराव के
कारण उन्होंने इतिहास लेखन में रूची ली। हुआ यूँ की किसी बात पर एनटीआर उनसे नाराज़
हो गये और उन्हें एक ऐसे विभाग में स्थानांतरित किया, जहाँ कोई
महत्वपूर्ण काम ही नहीं था। हालांकि वे इस बात के खिलाफ थे कि काम की जगह पर व्यक्तिगत
लिखने पढ़ने का काम हो, लेक विभाग में कुछ काम ही नहीं
था, इसलिए तत्कालीनी राज्यपाल कुमुदबेन जोशी द्वारा भेजे गये
प्रस्ताव पर उन्होंने क़ुली क़ुतुब शाह पर किताब लिखनी शुरू की और एक साल में वह पूरी
भी हो गयी।
जब पूछा गया कि क्या इतिहास की पुस्तकों
में लूथर साहब के भीतर जो हास्य लेखक था वो दब नहीं गया?
उन्होंने कहा, `दबा नहीं, बल्कि मर
गया। हास्य कहानियाँ लिखने लिए कल्पमात्र की आवश्यकता है, बैठे-बैठे एक कहानी
हो जाती है, लेकिन इतिहास का यह लेखन बिना तर्क
और सबूत के एक पंक्ति से आगे नहीं बढ़ता। कहानी लिखने वाले से कोई नहीं पूछता कि वो
झूठ कह रहा है या सच। मुझे अफसोस है, अपने इतिहासकार
होने से। वहीं रहता तो अच्छा था, लेकिन यह क़ुसूर हैदराबाद का
है कि उसने मुझे अपनी ओर आकर्षित किया, अपने बारे
में लिखने के लिए। इसके बावजूद मैं कहना चाहूँगा कि इतिहासकारों की तरह हर पृष्ठ को
तिथियों एवं सदर्भों को भरने का काम मैंने नहीं किया। क्योंकि इसी कारण इतिहास नीरस
हो जाता है। उसमें मैंने रस डालने का प्रयास किया है। हाँ यह अलग बात है कि इससे हास्य
के पाठक मेरी कहानियों से वंचित हो गये हैं।'
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