कभी तो ऐसा लगता है कि जिन्दगी अपना पूरा हक मांगती है, लेकिन टुकड़ों में जीता आदमी उसका यह हक कैसे अदा करे। जिनको एक पल जीने के लिए कई बार मरना पड़ता है और जिन्दगी एक बोझ सी लगने लगती है, उनके बीच रह कर उन का उत्साह बढाने के बारे में सोच रहा हूँ। सोच रहा हूँ के उन के बोझ को हल्का करने कि क्या तदबीर हो सकती है? यही हो सकता है के उनमे जिंदगी से मोहब्बत पैदा कि जाए, ताकि जो भी पल जीयें मस्त और मज़े से जियें।
माया मोहन
(कहानी) मौसम विभाग का अनुमान सही निकला था। बारिश कभी थम-थम कर तो कभी जम-जम कर बरस रही थी। मैं अपने छाते को संभाले फुटपाथ से बचते-बचाते किसी तरह कॉफी डे तक पहुँचा। आज लोग बहुत कम थे। यूं भी वहाँ जगह इतनी बड़ी थी कि भीड़ जैसी हालत कम ही नज़र आती। मैं अकसर छातेनुमा टीन के शेड के नीचे बैठा कॉफी की चुस्कियों के साथ अपनी कहानियों के लिए किरदार तलाश करता था। अक्सर लोग एक दूसरे को चेहरे से जान-पहचान लेते और आँखें मिलने पर कभी जबान से तो कभी इशारे से हाय हैलो कर लिया करते। उस दिन बारिश के बीच जब मैंने अपने टेबल की ओर कदम बढ़ाए तो वहाँ पहले से कोई मौजूद था। मैं कोई दूसरी जगह तलाश करने के बारे सोच ही रहा था कि उधर से आवाज़ आयी , " आइए लेखक महोदय , आपके टेबल पर कौन क़ब्ज़ा कर सकता है ?" मैंने मुश्किल से ' जी ' कहा और बैठ गया। वो माया थी। वो भी मेरी तरह अक्सर कॉफी डे आती थी। मैं सोचता ज़रूर था कि उसके बारे में मुझे जानना चाहिए। वो मेरी किसी कहानी का किरदार हो सकती है , बल्कि वो खुद पूरी की पूरी कहानी भी हो सकती है , लेकिन उसकी शख़्सियत का दबदबा इतना था कि मैं कभी उससे बात करन...
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