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अम्मा! हम इंटरनेशनल हो गये....

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देखना   मेरी ऐनक से सुबह हुई। सूरज अभी उस पास वाली बिल्डिंग के पीछे ही था। अम्मा ने बहू को आवाज़ लगायी। उठ बेटा बच्चा जाने वाला है , उसके लिए कुछ तोशा भी तो बनाना है।.. नाश्ता तो ख़ैर किसी तरह बन ही जाता , लेकिन तोशा...अब अम्मा को क्या बताएँ कि आज कल मुसाफिर पहले जैसे लोकल नहीं रहे। वो इंटरनेशनल हो गये हैं। उन्हें तोशे की क्या ज़रूरत , लेकिन अम्मा को तो फिक्र बनी रहती है , वह पुराने ख़यालात की हैं। उन्हें बस इतना मालूम है कि रास्ते में भुख प्यास कभी भी लग सकती है। पता नहीं वहाँ खाने-पीने की चीज़ें मिल भी जाएँ या नहीं , इसलिए वो हमेशा घर से निकलते हुए मुसाफिर के साथ तोशा बांधने को कहती हैं। बैंगलूरू के एक रिसार्ट में सियासत के ब्यूरो चीफ शहाबुद्दीन हाशमी और हिंदु बिज़नेस लाइन के करेस्पांडेंट रिशी के साथ  तोशा.. हैदराबाद और दक्कन वालों के लिए बहुत अहमियत की चीज़ हुआ करती थी। जब भी घर का कोई सदस्य या परिवार सफर पर निकलता तो खाने की ख़ूब सारी चीज़ें ताज़ा बनाकर बांध दी जातीं। इस ताकीद के साथ कि सफर में साथी मुसाफिर की ज़रूरत भी पूरी हो जाए। घर की बहू बेटियों को अलस...

सफलता के लिए अपने आपको बेवकूफ़ न बनाओ- मनोहर भट्ट

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सप्ताह का साक्षात्कार मनोहर भट्ट दक्षिण कोरियाई मोटर कंपनी किया मोटर्स के भारत में क्रय एवं विपणन प्रमुख हैं। इससे पूर्व वे मारुति सुज़ुकी और हुंडई में प्रमुख पदों पर कार्य चुके हैं। मोटर उद्योग विशेषकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख कंपनियों में 25 से अधिक वर्ष का अनुभव रखते हैं। उनका जन्म कर्नाटक के उडपी शहर में हुआ। पिता केंद्र सरकारी सेवा में थे इसलिए देश के कई प्रांतों में रहने का मौका मिला। वे मूल रूप से मरीन इंजीनियर हैं और कुछ वर्ष तक इस क्षेत्र में काम करने के बाद उन्होंने उस क्षेत्र को अलविदा कहा और बैंगलूर से एमबीए करने के बाद मोटर उद्योग में चले आये। पिछले सप्ताह किया मोटर्स ने भारत में (आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में ) अपनी कारों के निर्माण प्लांट के फ्रेमवर्क का उद्घाटन किया। इस कार्यक्र के लिए यात्रा के दौरान बैंगलूरू के एक रिसार्ट में मनोहर भट्ट से मुलाक़ात हुई। प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश-   बचपन की कुछ यादें, कहाँ पले बढ़ें और शिक्षा दीक्षा कहाँ हुई ? मेरा जन्म दक्षिण भारत (कर्नाटक) के उडपी शहर में हुआ। पिताजी केंद्र सरकार के ऑडिट एण्ड एकाउण्ड विभाग म...

ख़्वाब.. छोटो छोटे

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 भारत रत्न अबुल फ़ाक़िर ज़ैनुल-आबेदीन अब्दुल कलाम कहते थे कि ख़्वाब देखेें, बड़े ख़्वाब। दुनिया को बदलने के ख़्वाब। वो बड़े आदमी थे। करनी और कथनी में अंतर नहीं रखते थे। उनके सपने बड़े थे और उन्होंने उसको साकार भी किया। वो चाहते थे कि देश के बच्चे भी बड़े ख़्वाब देखें। उनसे प्रेरित होकर बच्चों ने बड़े ख़्वाब देखे भी और कुछ बच्चे बड़े होकर उन्हें  पूरा करने में भी लगे हुए हैं, लेकिन हमारा क्या हमारे ख़्वाब तो बहुत छोटे छोटे हैं, वो भी पूरे नहीं होते। यही कि आज का दिन अच्छा गुज़रे, किसी से लड़ाई झगड़ा न हो। न हमारी गाड़ी किसी से टकराए और न किसी और की गाड़ी हमारा नुक़सान करे। दुकान पर अच्छे ग्राहक आयें। धंधा अच्छा हो। ऑफिस में किसी से चख़पख़ न हो। हमसे जलने वालों के हाथ ऐसा कोई हथियार न लगें कि वह अपनी तिकड़मों को हवा दे सके। घर आते हुए जेब में इतने पैसे हों कि बीवी बच्चों और माँ बाप को खुश करने के लिए दुकान से कुछ मेवे ख़रीद सकें। हमारा ख़्वाब यह बिल्कुल नहीं है कि हम ही जीत जाएँ। बस हम हारना नहीं चाहते। चांद तारे तोड़ लाने और सारी दुनिया पर छा जाने का ख़्वाब भी हमारा नहीं है...

दूरस्थ शिक्षा में अपार संभावनाएं और अवसर- प्रो. शकीला ख़ानम

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प्रो. शकीला खानम डॉ. बी. आर अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा ब्यूरो की निदेशक हैं। साथ ही वह भाषा विभाग की डीन भी हैं। उनका जन्म आंध्र-प्रदेश के गुडिवाडा में हुआ। उनकी माँ हैदराबाद से थीं और उर्दू की अध्यापिका थीं। यहीं पर उन्होंने बी.कॉम की शिक्षा पूरी की। हैदराबाद यूनिवर्सिटी से हिंदी में एमए और पीएचडी करने के बाद उन्होंने हिंदी अधिकारी और अध्यापक के रूप में भी विभिन्न संस्थानों में काम किया। 1993 में विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। तुर्की के अंकारा विश्वविद्यालय में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय संपर्क परिषद की चेयर पर काम करते हुए दो वर्षों तक तुर्की के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ा चुकी हैं। मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में भी एक वर्ष तक प्रतिनियुक्ति पर हिंदी विभाग की अध्यक्ष रह चुकी हैं। सप्ताह के साक्षात्कर के लिए उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं- विश्वविद्यालय ने आपको डेब का निदेशक बनाया है। इस नये पद पर आपकी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं? पहले दूरस्थ शिक्षा परिषद हुआ करती थी। यही अब डिस्टेन्स एजुकेशन ब्यूरो कहलाता है। यह विश्वविद्यालय अनुदान आयो...

कोई माँ अपने बच्चे को नफरत करना नहीं सिखाती- नाज़िया इरम

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नाज़िया इरम ने यूँ तो विकासात्मक परियोजनाओं पर संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ काम किया है, मीडिया में भी रही हैं। एक फैशन स्टार्टअप की मालिक हैं।  यूपी मूल के एक परिवार में जन्मी और पली बढ़ी हैं। हालाँकि उनका जन्म असम में हुआ है, लेकिन शिक्षा दिल्ली विश्विविद्यालय में हुई है। वे मीडिया मेें स्नातकोत्तर की उपाधि रखती हैं। आज कल उनकी पुस्तक `मदरिंग ए मुस्लिम' चर्चा का विषय है। एक लेखिका के रूप मेें यह उनकी पहली पुस्तक है। तीन तलाक और मुस्लिम महिलाओं से संबंधित विषय पर पुरुष सत्तात्मक समाज पर कुछ बोल्ड टिप्पणियों के लिए भी उनका नाम सामने आया है। नाज़िया का मानना है कि 2014 के चुनावों के दौरान उन्होंने देश के कई इलाक़ों मेें नफरत का माहौल देखा। मुसलमानों को आतंकवादी के रूप मेें देखे जाने का नज़रिया बढ़ रहा था। उसी दौरान वह माँ बनी थी और उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि क्या एक मुसलमान की माँ होना ग़लत है। अपने बच्चे को अमन और शांति का माहौल देने की चिंता मेें उन्होंने कॉर्पोरेट स्कूलों का एक सर्वेक्षण किया और उसी को आधार बनाकर यह पुस्तक लिखी। हाल ही मेें मंथन ने उन्हें व्याख्यान के लिए हैदर...

ख़्वाब आधे देखे, वो भी पूरे नहीं कर पाया- मुज़फ्फर अली

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फिल्मकार , चित्रकार , शायर और डिज़ाइनर मुज़फ्फर अली देश की उन चंद हस्तियों में से एक हैं , जिन्होंने अपनी शर्तों पर कार्य किया और महान कहलाए। हालाँकि उन्होंने कई फिल्में बनाई , लेकिन ` उमराव जान ' ने उनको कालजयी लोकप्रियता प्रदान की। उनका जन्म 21 अक्तूबर 1944 को लखनऊ में हुआ। पिता साजिद हुसैन अली कोटवारा के राजा थे और माँ का संबंध भी मशहूर नवाबी घराने से था। प्रारंभिक शिक्षा ल-मार्टिनियर लखनऊ में हुई और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी से बी.एससी. के बाद वे विज्ञापन फिल्मों के काम के लिए कोलकाता चले गये। शुरू में सत्यजीत रे के सहायक के रूप में काम करने के बाद कुछ दिन तक उन्होंने श्याम बेनेगल और अज़ीज़ मिर्जा के साथ भी काम किया और फिर एयर इंडिया से जुड़ गये। यहाँ भी उनका काम विज्ञापन फिल्में बनाना ही था। उन्हें बचपन से ही चित्रकला से प्रेम था , यही कारण था कि वे फिल्मों में भी कलात्मकता की तलाश करते रहे। 1978 में उनकी पहली फिल्म ` गमन ' रिलीज़ हुई। इसके बाद उन्हें फिल्म और एयर इंडिया में से एक को चुनना था। उन्होंने फिल्मों को चुना और फिल्म ` उमराव जान ' बनायी। उनकी...