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फिर वो कौन था जो इतनी देर बोलता रहा

फिर वो कौन था जो इतनी देर बोलता रहा --- कायनात में सबसे अहम जितनी चीज़ें हैं , उनमें से सांसों के बाद अगर कोई सब से ज़रूरी चीज़ है तो वह .. लप़्ज़ है , लेकिन कभी - कभी एक और चीज़ उस पर भारी पड़ जाती है और वह है ख़ामोशी। किसी ने शायरी के बारे में कहा है कि यह दो लप़्ज़ों के बीच की ख़ाली जगह है। कहते हैं , कुछ कहने से ज्यादा त़ाकत ख़ामोश रहने में लगती है। शायरी ने भी ख़ामोशी के कई राज़ ख़ोले हैं। कहे हुए लप़्ज़ों को समझने के लिए न कहे हुए पर ज़्यादा ध्यान देने का फ़न भी दुनिया ने शायद शायरी से ही सीखी है। दो लोग बिना कुछ कहे , किस तरह सब कुछ कह जाते हैं , इसकी मिसाल देते हु गुलज़ार कहते हैं - ख़ामोशी का हासिल भी एक लंबी - सी ख़ामोशी है उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी ज़िन्दगी में कुछ ऐसे लम्हे भी आते हैं , जहाँ कोई हमारी ख़ामोशी पढ़ लेता है और हम उसके इस तरह अपने को पढ़ने से चौंक जाते हैं। फिर हम भी उसकी ख़ामोशी को पढ़ने लगते हैं। उसके बाद लप़्ज़ों का कारोबार भी इसी ख़ामोशी के पेट से पैदा होता है। और लप़्ज़ आवाज़ के बाज़ार में गुम हो जाते हैं। यूँ तो कह...

मुद्दत के बाद गुज़रे जो उसकी गली से हम

मुद्दत के बाद गुज़रे जो उसकी गली से हम एफ . एम . सलीम किसी गली से गुज़रते हुए क्या कभी पुरानी यादों से मुठभेड हुई है ? हो सकता है कि लंबा अरसा बीत जाने के बाद काफी कुछ बदला - बदला सा नज़र आता हो , लेकिन तिनके भर चीज़ भी दिखा देती है कि क्या कुछ हुआ बीता था। यादें एक के बाद एक सिरा पकड़ते हुए चली आएंगीं। हो सकता है कुछ याद करके लबों पर मुस्कुराहट चली आये या   फिर आँखें ही नम हों जाएं - कुछ याद करके आँख से आँसू निकल पड़े मुद्दत के बाद गुज़रे जो उसकी गली से हम     यादें चाहे नई हों या पुरानी , मीठी हो या खट्टी। उनका अपनी अहमियत हेती है , उनसे सारी आंधेरी गलियाँ रोशन हो जाती हैं। बशीर बद्र ने तो यादों को उजाला कहा है। अगर किसी गली में ाf़जन्दगी की शाम हो जाए तो उस शाम को रोशन करने के लिए यादों के दीये ही उजाला दे सकते हैं। किसी गली या कूचे से गुज़रते हुए बहुत कुछ याद आता चला जाता है कि कुछ बिगडा - संवरा था। बालकनियों में सूखते दुपट्टे , ज़ुल्फें सवारते ख़ूबसूरत चेहरे और फिर उन्हें देखते हुए किसी के देखे जाने का ड़र। किसी की आरज़ू और जुस्तजू करत...

पर दिलों में अब भी म़कसद घर वापसी का है -

सुबह के आते ही ख़त्म हो जाती है सुबह तो कौन आएगा और कौन आएगा और कौन रंगेगा चादर के किनारों को कौन मनाएगा उसकी उंगलियों के लम्स का जश्न कौन मनाएगा सुबह की हैरानगी का जश्न दीवार की सफ़ेदी पर चार कश्तियाँ चार कश्तियाँ समंदर के तले में रास्ता रोकते हैं आईने मैंने चाही थी एक आवाज़, जो नहीं होती किसी और की जैसी तो भी मैं गुज़रता जाता हूँ आईने भरे कमरे में क्या मुझे अब अपनी आँखें बंद कर लेनी चाहिए ? क्या मैं उस सब को नज़र अंदाज़ करूँ, जिसे मेरी आँखें जानबूझ कर नहीं देखतीं ? इतनी दूर चलती गयी है ये सड़क पर आईना अब भी रास्ता रोकता है कभी-कभी मैं लड़खड़ाकर ग़ायब हो जाता हूँ छोटे दरीया वाले पानी में ख़लीजे फ़ारस चमकता है मेरे सामने ग़ोताखोरी के बाद मेरे हाथों में घांस और एक सीपी चक्कर काटती है मछली झटपटाती है तितलियों, सेहियों, सितारों और डूबे आदमियों की आँखों को लंबी खामोशी मार डाल रही है मुझे कहाँ से आ रही है यह आवाज़ आईनों से भरी दीवारों के बीच थोडी देर से दोबारा शुरू करूँगा मैं लड़खड़ना सादी यूसुफ अरबी ज़ुबान के नामी गरामी शायर हैं। उनकी तख़‌लीक़ `शुक्रिया इमु...
एक नज्म हुई है। ख़ुशी स लोग हँसते हैं ख़ुशी में रों भी देते हैं ख़ुशी क्या है बता मुझको वो ग़मके पास रहती है या फिर दूर है कितनी मैं ग़म से जब भी मिलता हूँ हंसी रोने पे हंसती है
कल रात अताउल्लाह को सुन रहा था। एक शेर बड़ा अच्छा लगा। पेश है- मेरे महबूब ने मुस्कुराते हुए नकाब अपने चेहरे से सरका दिया चौदहवीं रात का चाँद शर्मा गया जितने तारे थे सब टूट कर गिर पड़े क्या बताऊँ के मायूस आंसू मेरे किस तरह टूट कर जेबे दामां हुए नर्म बिस्तर पे जैसे कोई गुलबदन अपने महबूब से रूत्ढ़ कर गिर पड़े
कभी तो ऐसा लगता है कि जिन्दगी अपना पूरा हक मांगती है, लेकिन टुकड़ों में जीता आदमी उसका यह हक कैसे अदा करे। जिनको एक पल जीने के लिए कई बार मरना पड़ता है और जिन्दगी एक बोझ सी लगने लगती है, उनके बीच रह कर उन का उत्साह बढाने के बारे में सोच रहा हूँ। सोच रहा हूँ के उन के बोझ को हल्का करने कि क्या तदबीर हो सकती है? यही हो सकता है के उनमे जिंदगी से मोहब्बत पैदा कि जाए, ताकि जो भी पल जीयें मस्त और मज़े से जियें ।