दिल हूम हूम करे.. आइसक्रीम का स्वाद और भूकंप के झटके
मुख्यमंत्री के मेहमान
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा के मेहमान और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में एक विशेष प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए गुवाहाटी की यात्रा का इस तरह अजीब परीस्थितियों में समाप्ति को पहुँचना, था तो कुछ अजीब सा, लेकिन ऐसा था तो था, अब भला उसे कौन बदल सकता है। इस सफर की शुरूआत से लेकर आखिर तक बहुत सी खूबसूरत यादों का एक छोटा सा खज़ाना संभाले हुए मैं बोर्डिंग गेट की तरफ निगाह करके इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि शायद अब थोड़ी ही देर में बुलाया जाएगा। इस बीच सामने की कुर्सियों पर बैठे कुछ लोगों की बातचीत से लगा कि उनसे मिलना चाहिए। भूकंप के झटकों के प्रभाव से सभी लोग डरे सहमे अपनी जान की दुआ मांग रहे थे। खैर सूचना तंत्र का ज़माना है, कुछ ही देर में पता चला कि सारे उत्तर पूर्व में दूर दूर तक झटके महसूस किये गये और जहाँ हम थे, भूकंप का मुख्य केंद्र वहाँ से कुछ ही दूरी पर था। कुछ ही मिनट बात सब कुछ मामलू पर था, लोग अपने अपने रिश्तेदारों दोस्तों को अपने अनुभव साझा कर रहे थे। ऐसे में मैं अपनी गुवाहाटी की यात्रा के मूल कारणों पर विचार करने लगा।
मुझे याद आया कि लगभग ढाई महीने पहले हमारे लेखक-शिक्षक दोस्त डॉ. मुहम्मद अब्दुल गनी साहब ने बताया था कि उन्होंने मेरा नाम असम पब्लिकेशन विभाग को उर्दू अनुवादक के रूप में सुझाया है। डॉ. गनी के साथ बातचीत को तीन दिन ही गुज़रे थे कि गुवाहाटी से अपराजिता पुजारी का फोन आया। वह पब्लिकेशन विभाग में प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं। उन्होंने बताया कि असम सरकार भारत रत्न भूपेन हज़ारिका की जन्म शताब्दी मना रही है और सितंबर में एक बड़ा कार्यक्रम होगा। इस उत्सव के दौरान एक पुस्तक भी लोकार्पित की जाएगी, जो भूपेन हज़ारिका के जीवन पर आधारित होगी। इसका सभी संविधान मान्य भाषाओं में अनुवाद किया जाएगा। उर्दू के अनुवाद के लिए मेरा नाम सुझाया गया है। नाम सुझाने वाले हैं पाटिपाका मोहन। तेलुगु के बाल लेखक पाटिपाका मोहन उन लोगों से बड़ी मुहब्बत करते हैं, जो लिखने पढ़ने से रिश्ता रखते हैं। फिर एक दो दिन बाद वह दिन आया, जब अपराजिता पुजारी हैदराबाद में थीं। उनके साथ हैदराबाद के ऐतिहासिक मुअज्जम जाही मार्केट में ताज़ा आईस्क्रीम के दौर चले। डॉ. ग़नी भी उस छोटी सी मुलाक़ात में मौजूद थे। अपराजिता से उस दिन बहुत कम बात हुई, लेकिन भाषा और साहित्य के प्रति उनकी रुची देखकर कोई भी पहली मुलाक़ात में प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। बाद में उनसे कई मुलाक़ातें हुईं। वह अपने नाम की तरह ही हैं, अपराजिता।
खिड़कियाँ खोलने वाले लोग
इस मुलाक़ात के कुछ ही दिन बाद असम पब्लिकेशन विभाग के निदेशक प्रमोद कलीता का पत्र मिला कि अनुवाद का काम शुरू करना है। यह ऐसी पुस्तक का अनुवाद था, जो असमिया में एक एक चैप्टर के रूप में लिखी जा रही थी, उसके तत्थ्यों को मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा द्वारा गठित एक समिति के बारह सदस्य प्रमाणित कर रहे थे, उसे तत्काल अंग्रेज़ी में अनूदित किया जा रहा था और उस अनुवाद को देश के विभिन्न शहरों में बसे तेईस भाषाओं के अनुवादकों को भेजा रहा था। सभी अनुवादक वाट्सएप ग्रुप के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े थे। सब उत्साहित थे। बीच-बीच में एक दूसरे से बातचीत भी कर लेते। कुछ एक दूसरे को पहले से जानते थे और कुछ की बिल्कुल नई जान पहचान हुई थी। बड़े दिलचस्प लोग। होंगे भी क्यों नहीं, एक से अधिक भाषाएं जानने लोग विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं के शरीर बदलने में एक्सपर्ट होते हैं। बंद दीवारों में खिड़कियाँ खोलने का काम करते हैं।
वाट्सएप ग्रुप में जब मैंने हिंदी के स्थान पर सुधीर नाथ झा का नाम देखा तो उन्हें फोन मिलाया। उधर से रिंग के अलावा कोई जवाब नहीं था। दो तीन दिन बाद फिर मिलाया, फिर वही रिंग। ऐसा तीन से चार बार हुआ। जब कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने उनके लिए एक मैसेज छोड़ दिया। काम बन गया। उसी दिन शाम झा साहब का फोन आया। मुझे उम्मीद थी, ऐसा होगा। फोन पर जवाब न मिलने का उन्होंने जो कारण बताया, वह भी दिलचस्प। ‘मैं अंजान नंबर के फोन नहीं उठाता।‘ मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि आधी परेशानियाँ तो यूँ ही खत्म, क्योंकि आजकल की आधी परेशानियाँ तो अनजान नंबर से आने वाली कॉल ही हैं। कभी किसी लोन देने वाले की या फिर प्लॉट या फ्लैट बेचने वाले या फिर जानकारी हासिल कर बैंक की जमा पर हाथ साफ करने वाले की। आजकल तो दानपुण्य के लिए भी फोन का इस्तेमाल हो रहा है। खैर! वो दिन है और आज का दिन, झा साहब से अकसर बातचीत होती रहती है। बड़े अच्छे आदमी हैं, दिल्ली में रहते हैं हिंदी और अंग्रेज़ी में खूब महारत रखते हैं। दूसरी भाषाएँ भी जानते हैं, लेकिन इसका पता देर से चलता है।
अनुराधा पुजारी शर्मा की लिखी पुस्तक भारत रत्न भूपेन हज़ारिका के अनुवाद का काम शुरू हुआ तो परियोजना निदेशक अपराजिता पुजारी और अनुवादकों में एक और बात को लेकर चर्चा हुई कि अनुवाद की प्रति को पड़ताल के लिए एक कॉपी एडिटर हो तो अच्छा है, हाँ, ना... में तय हुआ कि होना चाहिए और फिर उर्दू के अनुवाद के साथ मेरे बहुत पुराने दोस्त और उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार डॉ. फाज़िल हुसैन परवेज़ भी इस परियोजना से जुड़ गये। फाजिल साहब मीडिया प्लस के संस्थापक हैं और साप्ताहिक गवाह पत्रिका के संपादक भी। मेरा उनसे रिश्ता लगभग बत्तीस साल पुराना है। सन 1993-94 में उनसे मेरी मुलाक़ात उस समय के लोकप्रिय उर्दू दैनिक रहनुमाए दक्कन में हुई थी, जब मैंने इस समाचार पत्र के संडे एडिशन के असिस्टेंट के रूप में काम शुरू किया था। उसके प्रभारी अपने दौर के प्रसिद्ध उर्दू व्यंग्यकार मसीह अंजुम हुआ करते थे। अनुवाद का काम शुरू हुआ और इस काम में तकनीकी तौर पर मुहम्मद कबीर और हिना मुस्कान ने भी ख़ूब मदद की।
शहबाज़ परवेज़ की का रतजगा
भारत रत्न भूपेन हज़ारिका की उर्दू अनुवाद की फाइलें एक-एक करके मैंने फाजिल साहब को भेजनी शुरू की। उन्होंने बड़ी दिलचस्पी और मुहब्बत से इसकी भाषा में सुधार किये। साथ में बार बार यह कहा कि उन्हें कुछ नया पढ़ने को मिल रहा है। जब भी उनसे मिलता वो कहते.. दिल हूम हूम करे...। इस बहाने मुझे वो पुराने दिन याद आते, जब अभी सेलफोन की बीमारी नहीं पैदा हुई थी। सीडी और डीवीडी भी नहीं आया था। गाने सुनने के लिए खास लोग बड़े तवानुमा रिकॉर्ड और कुछ आम लोग टेप रिकार्डर और कैसेट का इस्तेमाल किया करते थे। ज्यादातर लोगों का शौक़ रेडियो से ही पूरा होता था। मैंने जब पहली बार टेप रिकॉर्डर खरीदा तो हुसैनी अलम की एक दुकान में पसंदीदा गज़लों-गीतों की कैसेट में मेहदी हसन, जगजीत-चित्रा, गुलाम अली, भूपेंद्र सिंह, अनूप जलोटा, पंकज उधास और कुछ पुराने फिल्मी नग़मों के साथ-साथ भूपेन हज़ारिका का गीत दिल हूम हूम करे भी घर ले आया था। शायद वो 1992 की बात है।
खैर.. निर्धारित लक्ष्य के साथ अनुवाद होता रहा और कई सारे भाषाई अनुभवों में एक अनुभव यह भी रहा कि अंग्रेज़ी-उर्दू की एआई डिक्शनरी अभी उतनी उन्नत नहीं हुई है। इसलिए कई सारे अंग्रेज़ी मुहावरों को समझने के लिए अंग्रेज़ी-अंग्रेज़ी या अंग्रेज़ी-हिंदी से काम चलाना पड़ा। इस बहाने कुछ असमिया की ध्वनियाँ और असम के भुगोल और इतिहास की भी जानकारी मिली। भुपेन हजारिका के साथ उत्तर पूर्व के कई राज्यों की संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिला।
खुदा ने ये भी किया कि किताब की रिलीज़ से पहले उत्तर-पूर्व के राज्य मेजोरम का भी दौरा कर लिया। किसी तरह अनुवाद का काम पूरा हुआ। बात इसके प्रकाशन की हो रही थी कि एक दिन दक्षिण मध्य रेलवे से फोन आया कि प्रधानमंत्री के दौरे से पूर्व मेज़ोरम की यात्रा करनी है। आनन फानन में तैयारी की और फिर मिजोरम की राजधानी आइजोल के लिए रवाना हो गया। अपने ही देश में इतने आकर्षक, सुहावने, हरीभरी वादियों और पहाड़ी चटानों के बीच बसे शहर को देखा तो देखता रह गया। (इस यात्रा पर किसी और दिन बात होगी)
खैर.. आइजोल से निकलने की तैयारियाँ चल रही थी कि गुवाहाटी से फोन आया कि भूपेन हज़ारिका की जीवनी और उनके सभी भाषाओं के अनुवाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी लोकार्पित करेंगे और इसके लिए मुझे गुवाहाटी पहुँचना है। अभी घर लौटे नहीं हैं कि दूसरी यात्रा पर निकलना है।
कभी जब लगातार यात्राओं में रहना पड़ता है तो तो साबिर सहबा का एक शेर याद आता है-
ये तज्रबे सफर के किसी और को सुना
बरसों हमारे पाँव रहे हैं रकाब में।
सोचा तो यही था कि आइजोल से सीधे गुवाहाटी पहुँचा जाए, लेकिन अभी एक रात मेरे खाते में ऐसी थी, जो हैदराबाद में गुज़ारी जा सकती थी।
मिजोरम की यात्रा पूरी कर हैदराबाद के लिए रवाना हुआ। अब तक की यात्राओं में यह पहला ऐसा मौक़ा था कि दूर दराज़ उत्तर पूर्व आइजोल से हैदराबाद पहुँचने के बाद केवल आठ से दस घंटे थे, जिसमें एयरपोर्ट से घर पहुँचने, और फिर गुवाहाटी की यात्रा की तैयारी करनी थी।
इस बीच एक और यादगार घटना बड़ी यादगारी रही। डॉ. भूपेन हज़ारिका का हिंदी अनुवाद प्रिंट के लिए पब्लिकेशन विभाग को सौंपना था। यह जिम्मेदारी डॉ. फाजिल हुसैन परवेज़ साहब ने संभाली थी। पूरी किताब डिजाइन होकर तैयार होने के बाद अचानक पता चला कि कुछ नामों की वर्तनी में परिवर्तन है। मैंने इसकी सूचना ड़ॉ. फाजिल साहब को दी और फिर उनके पत्रकारऔर लेखक साहबजादे शहबाज़ परवेज़ और सहयोगी आमिर ने किताब में वर्तनी के संबंधित सुझाव को ठीक कर किताब को फिर से डिज़ाइन करने की जिम्मेदारी ली। इस तरह उन्होंने पूरी रात इस काम में गुज़ार दी। सुबह सात बजे के आस-पास अपराजिता पुजारी और पब्लिकेशन विभाग को किताब की फ्रेश कॉपी के साथ मेल भेजा गया। शहबाज़ ने बताया कि यह टास्क उनके लिए काफी यादगार रहा। उनका शुक्रिया।
मैं हैदराबाद में घर पर कुछ लम्हे गुज़ार कर सुबह जब एयरपोर्ट पर पहुँचा तो चेकिंग काउंटर के पास कन्नड के अनुवादक अजय वर्मा से मुलाक़ात हुई। कुछ दिन पहले मोहन भाई ने उनसे बात करवाई थी। हम दोनों वहाँ से बोर्डिंग गेट की ओर रवाना हुए। ख़ूब सारी बातें हुईं। पता चला कि वह तेलुगु भाषी हैं, लेकिन कन्नड अच्छी तरह जानते हैं। मैंने उन्हें बताया कि मेरी माँ और पत्नी दोनों का कन्नड भाषा क्षेत्र से संबंध है और वे दोनों जब भी मेरे सामने मुझसे छुपाकर कुछ बातें करनी हों, कन्नड में कर लेती हैं। उस समय मुझे अपने उस भाषा में अनपढ़ होने का एहसास कुछ ज्यादा ही होता है। हालाँकि कुछ वर्षों पहले मैंने बसों के नाम बोर्ड पढ़ने के लिए कन्ऩड सीख ली है।
गुवाहाटी में पहुँचते ही प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के अतिथि के रूप में प्रोटोकॉल अधिकारियों ने स्वागत किया और होटल पहुँचने के बाद अपराजिता पुजारी ने भी यह जता दिया कि हम गुवाहाटी सीएम के ख़ास मेहमान हैं। गुवाहाटी पर उतरने से पहले मालूम हो चुका था कि साहित्य अकादमी से सम्मानित तमिल और कन्नड लेखक तमिल के अनुवादक के. नल्ला थम्बी भी इस कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं। नल्ला थंबी जी से मेरी पहले भी एक अनुवाद सम्मेलन में मुलाक़ात हो चुकी थी। बस याद नहीं आ रहा था कि कहाँ हुई है, उधर उनका भी वही हाल था। जैसे ही होटल के कमरे में पहुँचे, उनके मुँह से भी वहीं शब्द निकले, जो मेरे ज़हन में थे,... हम पहले भी कहीं मिले हैं। लंच-डिनर के साथ साथ होटल के उनके और मेरे कमरे में उनके साथ बहुत सारी बातें हुईं। इसी बीच शाम को बैंगलोर से मोहन भाई और दिल्ली से झा साहब भी गुवाहाटी पहुंच गये थे। झा साहब से मुलाकात तो पहली बार हो रही थी, लेकिन फोन पर कई बार बात हो चुकी थी। बड़े मृदुभाषी और मुहब्बत करने वाले इन्सान। रात के खाने पर कई सारे और मेहमानों से मुलाक़ात हुई, जिनमें असम के विभिन्न कॉलेजों के प्रोफेसर और अधिकारी भी शामिल थे। पंजाबी के संदीप कुमार. ओरिआ के सुभाष चंद्र सतपति और राजस्थानी की डॉ. संघमित्रा राठौर सब की अपनी अलग शख़्सियत का असर उस महफिल में साफ था। संघमित्रा आईआईटी में अंग्रेज़ी की प्रोफेसर हैं, लेकिन राजस्थानी में उन्होंने अनुवाद किया है। दूसरे दिन मैथिली के डॉ. अशोक कुमार झा भी गुवाहाटी पहुंच चुके थे। ये दूसरे झा साहब भी बड़े मज़ेदार आदमी हैं। कार्यक्रम से लौटने के बाद अख़बारों में छा जाने की उनकी एक और कला से परिचित हुआ। अन्य अनुवादकों में कृष्णा दुलाल बरुआ (अंग्रेज़ी), लिलेश वी. कुडालकर (कोंकणी), ज्ञान बहादुर छेत्री (नेपाली), संस्कार देसाई (गुजराती) और अन्य साथियों से भी मुलाक़ात हुई। कश्मीरी के डॉ. मुहम्मद अशरफ जिया (कश्मीरी) एवं मराठी की रेखा देशपांडे कार्यक्रम में नहीं आ पाये, लेकिन फोन पर उनसे अनुवाद के सिलसिले में एक दो बार बातचीत यादगार रही।
हज़ारों कलाकार एक साथ गा उठे
शाम का इंतज़ार था और जैसे ही कार्यक्रम का समय हुआ, गुवाहाटी के आसमान पर बादल घने होते-होते बरस ही पड़े। भीगते-भीगते किसी तरह कार्यक्रम स्थल पहुंचे। शनिवार 13 सितंबर को गुवाहाटी के खानापारा में वेटरनरी कॉलेज मैदान में डॉ. भूपेन हज़ारिका की जन्मशताब्दी के कार्यक्रम की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असम के अपने दो दिवसीय दौरे के दौरान भारत रत्न डॉ. भूपेन हजारिका के जन्म शताब्दी समारोह में शामिल हो रहे थे। इस अवसर पर देश की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित भुपेन हज़ारिका की जीवनी का भी उन्हें लोकार्पण करना था। इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न शहरों से पहुँचे हम अनुवादक भी उस कार्यक्रम में उपस्थित थे। हमारे लिए एक विशेष पंक्ति आरक्षित रखी गयी थी। पास में ही पुस्तक तथ्यान्वेषण समिति के सदस्यों के लिए भी एक पंक्ति आरक्षित थी। पुस्तक की मूल लेखिका अनुराधा पुजारी भी वहीं हमारे साथ बैठी थीं। सामने असम सरकार के मंत्री और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी थे। सबसे खास बात यह थी कि 1200 हज़ार अधिक कलाकार भूपेन हज़ारिका के चयनित गीत गाने के लिए तैयार थे और उन्होंने प्रस्तुति भी बड़ी शानदार दी। प्रधान मंत्री मोदी का भाषण भी बड़ा ज़बर्दस्त रहा। उन्हें सुनकर ऐसा लगा कि किसी यूनिवर्सिटी में भूपेन हजारिका स्पेशल ऑथर के रूप में पढ़ाने वाले प्रोफेसर अपना पेपर पढ़ रहे हैं। डिजिटल प्रतियों का एक साथ लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम निश्चित रूप से यादगार रहा।
दूसरे दिन गुवाहाटी के विख्यात कामाख्या मंदिर पहुँचे। ऐतिहासिक मंदिर में हज़ारों की भीड़ थी। वीआईपी इंट्री के बावजूद तालाबंद कतार में देर तक बैठने के बाद, मंदिर के भीतर पहुँचे और ढेर सारी परंपराओं के दर्शन के बाद पहाड़ी रास्ते से वापस होटल पहुँचे। रास्ते में कार ही में से एक व्यू पॉइंट देखा गया, इसके अलावा कोई साइट सीन हमारी दर्शनीय सूची में शामिल नहीं हो सका, इसलिए भी कि एयरपोर्ट पहुँचने की जल्दी थी, जहाँ भूकंप के झटके इंतज़ार कर रहे थे। .. फिर वहाँ से भी तो निकलना था, किसी और सफर के लिए और ज़रूरी नहीं है कि सफर में कोई राहत मिले.. निदा ने ख़ूब कहा है-
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
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Awesome 👍
ReplyDeleteExcellent
ReplyDeleteबहुत ख़ूब।
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