तीन पंक्तियों की तलाश
देखना मेरी ऐनक से
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मूर्तिकाल राधाकृष्ण की एक कलाकृति दुनिया को देखने का एक अलग अंदाज |

आज ईमेल, वाट्स एप और एसएमएस का ज़माना है। उसकी अपनी भाषा है, लेकिन एक ज़माना वो भी था, जब एक पत्र लिखना हो तो कई पृष्ठ लिख-लिख
कर फाड़ना, बल्कि फाड़ते चले जाना मामूली बात थी। जब तक कि फटे, लिपटे, मुढ़े हुए काग़ज़ों का ढ़ेर पास में पड़ा
न हो ख़त लिखने का मज़ा ही नहीं आता था। उस समय यह ढेर और बड़ा हो जाता था, जब लिखने वाला प्रेमी या प्रेमिका की
भूमिका में हो। उस समय न कंप्युटर था न मोबाइल फोन और न डिलिट करने की कोई सुविधा।
एक ही काम हो सकता था, काग़ज़ पर लिखी पंक्तियाँ अगर संतुष्ट करने वाली न हों तो
उसे फाड़कर रद्दी की टोकरी के हवाले किया जाए और दूसरे काग़ज़ पर फिर से लिखा जाए।
आश्चर्य इस बात का है कि ज्यादातर काग़ज़ शुरू की उन्ही तीन-चार पंक्तियों के लिए
फटा करते थे। जब भूमिका लिखी जाती तो फिर विस्तार में अधिक समस्या नहीं होती।
ज़िंदगी भी समाचार के लीड़ की उन तीन-चार पंक्तियों की तरह ही है, जो कभी आसानी से मिल जाती है और कभी उसे
मुश्किल से ढूंढ निकालना पड़ता है। कभी तो जो कुछ है, उसी में कुछ को महत्वपूर्ण बनाना पड़ता
है। सूरज हर दिन सुबह जगह बलदकर निकलता है। रात के बाद सुबह का मैसेज देने वाली
सूरज की किरणें बताती हैं कि नींद से जागने के बाद फिर से नयी ज़िंदगी मिली है। वह
कल की तरह पुरानी नहीं है। इसमें कुछ नया ढूंढना है। यह बोरिंग बिल्कुल नहीं होना
चाहिए। नीरसता के तत्वों को इसमें कोई जगह नहीं है। ऐसे ही जैसे हर
सुबह एक नयी न्यूज़ की तलाश में निकल पड़ने वाले पत्रकार को हमेशा यह उम्मीद बंधी
रहती है कि उसे न्यूज़ की लीड मिल ही जाएगी। रोज़ की सी दिखने वाली चीज़ों में भी
वह नये रंग भरता है। नयी पंक्तियाँ तलाश करता है।
Saleem Bhai pahli baar prima facie aapka Blog dekha. Achchha laga.
ReplyDeleteAapka
Abdul Hameed Khan
Assistant General Manager
NABARD, Hyderabad.
शुक्रिया
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