एक पैसे के इनाम से शुरू हुई थी उर्दू प्रोफेसर नसीमुद्दीन फरीस की कहानी
प्रो. नसीमुद्दीन
फरीस मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवार्सिटी के उर्दू के प्रोफेसर हैं। डीन पद भी
संभाल रहे हैं और हालही में उन्हें विश्वविद्यालय ने मौलाना आज़ाद चेयर का प्रमुख
बनाया है। यह विश्वविद्यालय का काफी सम्माननीय पद है। वे पाँच
किताबों के रचनाकार हैं। हैदराबाद में सरकारी प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से लेकर
हैदराबाद विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर तथा मानू के उर्दू प्रोफेस तक की उनकी
जीवन यात्रा काफी संघर्षों से गुजरी है। उनसे हुई बातचीत के कुछ अँश यहाँ प्रस्तुत
हैं।
मौलाना
आज़ाद चेयर के बारे में कुछ बताइए
मौलाना
आज़ाद चेयर का कार्य 2011 में नियमित रूप से शुरू हुआ था। प्रो. सुलैमान सिद्दीकी
इसके पहले प्रभारी थे। उन्होंने वर्ष 2012 तक काम किया। उसके बाद कुछ दिन तक इसका
कार्य रुका रहा। फिर आमेना किशोर ने इसे संभाला था। इन दोनों प्रभारियों ने काफी
अच्छे काम किये। विश्वविद्यालय की दूरस्थ शिक्षा के लिए इतिहास की पुस्तकें उर्दू
में उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने उसे प्राथमिकता दी। उन्होंने इसका कार्य युद्ध स्तर
पर किया था। अंग्रेज़ी, उर्दू और दूसरी भाषाओं के
इतिहासकारों को आमंत्रित किया। कार्यशालाएँ आयोजित कीं। काफी गुणवत्तापूर्ण अनुवाद
हुआ। उसके बाद अर्थशास्त्र पुस्तकों का अनुवाद भी हुआ।
दर असल
चेयर के जो उद्देश्य मौलाना आज़ाद के व्यक्तित्व पर होना चाहिए। उनके कार्य, उनका दर्शन, जीवन, भारतीय राजनीति तथा आज़ादी की जंग में उनका योगदान जैसे विषयों पर
काम होना चाहिए। लेकिन विश्वविद्यालय की तत्काल आवश्यकता पर ध्यान दिया गया। और
विद्यार्थियों के लिए पाठ्यपुस्तकों की तैयारी करवाई।
एक
महत्वपूर्ण संगोष्ठी मौलाना के जीवन पर आयोजित की गयी थी, जिसमें पूरे भारत से विद्वान आये थे और मौलाना के जीवन के विविद्ध
पहलुओं को उन्होंने सामने रखा।
विश्वविद्यालय
के लिए 5 वर्षीय एकीकृत कोर्स के लिए भी उन्होंने पाठ्यक्रम तैयार किया था।
हालांकि उस पाठ्यक्रम पर अभी अमल नहीं हो पाया।
प्रो.
आमिना किशोर ने जब मौलाना आज़ाद चेयर की जिम्मेदारी संभाली तो उन्होंने भी कई
संगोष्ठियों एवं कार्यशालाओं का आयोजन किया। उन्होंने एक आज़ाद फ्री थाट्स क्लब
बनाया। जिसमें विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की रचनात्मक गतिविधियों को
प्रोत्साहित किया गया। हैदराबाद में स्कूली छात्र छात्राओं के भी उन्होंने कुछ
गतिविधियाँ चलायी थीं।
अब
आपके सामने क्या चुनौती है
पिछले
प्रभारियों के सामने जो काम थे, उन्होंने किये, लेकिन अब मेरे सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती चेयर की अवधि को
विस्तारित करवाना है। आज़ाद चेयर की निर्धारित समय सीमा पाँच वर्ष के लिए थी, जो अगस्त 2016 में समाप्त होने जा रही है। इसको विस्तारित करने के
लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को मनवाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिए पाँच वर्ष
के दौरान की गतिविधियों को उचित तरीके से प्रदर्शित करना और आने वाले वर्षों के
लिए एक सशक्त योजना बनाना हमारा लक्ष्य है।
चेयर
जिस हस्ती के नाम पर समर्पित है, उनके लिए जिस तरह के काम
होने चाहिए थे, नहीं हुए। मेरी कोशिश
रहेगी कि उनके जीवन पर काम करें।
हमारी
पाठ्यपुस्तिकाओं विशेषकर राजनीति शास्त्र और पत्रकारिता की पुस्तकों में जितना
स्थान मौलाना को मिलना चाहिए था, नहीं मिला। उनकी सेवाओं
की जिस अंदाज़ में सराहना की जानी चाहिए थी, नहीं की गयी। नयी नसलों तक उस बात को पहुँचाना ज़रूरी है। इस काम
के लिए
मौलाना
की कुछ खास कृतियों को तेलुगु में अनूदित करने को प्राथमिकता दी जा रही है। उनका
आज़ादी, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता, देशभक्ति, हिंदु मुस्लिम एकता जैसे मुद्दों पर मौलाना के विचारों को दूसरी
भाषाओं में स्थानांतरित करना ज़रूरी है। विशेषकर यह की उन्होंने किस तरह के
हिंदुस्तान की कल्पना की थी, यह बात
नई नसलों तक पहुँचाना ज़रूरी है।
आज
मौलाना के विचार अधिक प्रासंगिक है। मौलाना का मानना था कि मज़हब देश प्रेम के
रास्ते में आ ही नहीं सकता, बल्कि वह तो देशप्रेम को
परवना चढ़ाता है। मौलाना ने कहा था, अगर आसमान से कोई फरिश्ता दिल्ली की जामे मस्जित की मीनारे पर उतरे
और यह कह दे कि .... कल सुबह तक तुमको आज़दी मिल जाएगी, लेकिन तुमको यह मानना पड़ेगा कि हिंदु और मुस्लिम दो अलग अलग
राष्ट्र हैं। ...ऐसे समय मैं आज़ादी की मांग से पीछे हटूँगा, लेकिन हिंदु और मुसलमानों को अलग अलग राष्ट्र होने की बात को
स्वीकार नहीं करूँगा। ....राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर गहरी और अटूट श्रद्धा रखने
वाली उस हस्ती को लोग भूल गये। उनके चिंतन और दर्शन को भुला दिया गया। हिंदुस्तान
की सारी ज़बानों में उनका विचारों को स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
अपने बचपन की कुछ यादें....
मेरा
संबंध महबूबनगर जिले के कोडंगल शहर से है। कोडंगल एक ऐतिहासिक स्थल है। कुतुबशाही
शासन की एक महत्वपूर्ण कड़ी यहाँ से जुडी है। इसका संस्थापक बहमनी शासन काल में
कोडंगल का सूबेदार(गवर्नर) था। उसके स्थापित किये गये शीलालेख आज भी वहाँ हैं।
वहाँ जिस मकान में रहता था, उसे गड़ी कहा जाता है। यह
छोटा सा किला आज भी है, जहाँ देशमुख रहते हैं।
उसने दो गाँव बस बसाये थे, हसनाबाद और आलेर के नाम
से, वे आज भी हैं। इतिहास के
कुछ खंडहर आज भी हैं।
आज़ादी
से पहले यहाँ शेर व शायरी का अच्छा माहौल था। पंडित दामोदर जकी पंत यहाँ के काफी
मशहूर शायर रहे हैं। वो हबीबुल्लाह वफा के शागिर्द थे। माहौत कुछ ऐसा था कि जब
विद्यार्थी माध्यमिक स्कूल में पहुँच जाता था तो उसे शेर व शायरी का चस्का लग जाता
था। वहाँ हर मुहल्ले में तीन चार शायर आसानी से मिल जाते थे। उस माहौल में मैंने
अपनी शिक्षा पूरी की। सभी अधिकारियों के बच्चे भी हमारे साथ सरकारी स्कूल में
पढ़ते थे।
इंटरमीडियट
उर्दू मीडियम और ग्रैज्वेशन अंग्रेजी माध्यम से किया। उस्मानिया विष्वविद्यालय से
उर्दू एम ए में अच्छे अंक लाने के लिए राय जानकी प्रशाद स्वर्ण पदक और उत्तर
प्रदेश उर्दू अकादमी स्वर्ण पदक प्रदान किये गये थे।
एक खास
बात यह रही कि
मैं
पहली कक्षा में था। कहानी का एक घंटा होता था। उसके अलग उस्ताद थे। वो हर दिन एक
कहानी सुनाते और दूसरे दिन सब बच्चों से उस कहानी के बारे में पूछते। एक दिन ऐसे
ही जब पूछा तो पूरी क्लास में किसी ने कहानी नहीं सुनाई। जब मेरा नंबर आया तो मैं
घबराते घबराते अपनी जगह से उठते उठते ही कहानी सुनानी शुरू की और एक ही सांस में
पुरी कहानी सुना दी। पाँच साल की उम्र रही होगी मेरी। उस्ताद बहुत खुश हुए और
उन्होंने कक्षा में एलान कर दिया कि वो मुझे एक पैसा इनाम देंगे। उस वक्त एक पैसा
भी काफी बड़ी रकम हुआ करती थी। मैं वह घटना याद करता हूँ तो मेरे रोंगटे खड़े हो
जाते हैं। एक पैसा देने के लिए उन्होंने अपनी शेरवानी की जेब में हाथ डाला। वहाँ
उन्हें पैसे नहीं मिले। शेरवानी की सारी जेबें टटोलने के बाद भी जब पैसे नहीं मिले
तो फीर क्लास के मानिटर को घर भेजकर एक रुपया मंगाया और मुझे इनाम दिया। इस तरह से
उस समय काफी प्रोत्साहन मिला। अगर वह सब मेरे हिस्से न होता तो मैं यहाँ तक न
पहुँचता।
शहर में रहकर पढ़ना काफी संघर्ष भरा रहा होगा..
मुझे
पढने पढ़ाने का शोक था। शुरूआत प्राइवेट ट्यूशन से की। सईदाबाद के एक मदरसे में
पार्टटाइम पढ़ाता था। टीचर ट्रेनिंग की की। बाद में बीएड भी किया। मैंने यहाँ
कोशिश की कि जिस तरह मेरे उस्तादों की तरह अपने शागिर्दों को भी प्रोत्साहित करता
रहा। बच्चों को प्रोत्साहित करने की बात आयी तो मुझे एक घटना याद आती है। स्कूल
में जब वार्षिक परीक्षाओं के परिणामों का समय आता तो हेड मास्टर खुद ही कक्षा में
आकर सब के परिणाम घोषित करते। हमार स्कूल के हेडमास्टर के.बसप्पा उर्दू के विद्वान
थे। उनका तरीका था कि वो आते ही क्लास के सब बच्चों को फूल के हार पहना देते और
बाद में जब क्लास में सबसे अच्छे अंक लाने वाले विद्यार्थी को सारे विद्यार्थी
अपने हार पहना देते। मुझे पाँच छह साल तक सब के हार पहनने का श्रेय प्राप्त रहा।
कई शिक्षक गैर मुसलिम थे, लेकिन उर्दू पढ़ाते थे। बुगप्पा मास्टर उर्दू के उच्चारण
पर काफी जोर देते थे। हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध के लिए आया तो यहाँ भी प्रो.
ज्ञानचंद जैन मेरे निर्देशक थे।
रिसाला
अब्दुल्लाह प्राइमरी स्कूल में मेरी पहली पोस्टिंग हुई। काफी लंबे समय तक वहाँ काम
किया। जब मौलाना आज़ाद विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो यहाँ एक अनुवादक का पद
रिक्त था। वहाँ मेरी नियुक्ति हुई और कई पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद का काम करने का
मौका मिला। 2000 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति हुई
और वहाँ2007 तक काम किया। सहायक प्रोफेसर बन गया था। मानू में फिर रिडर का पद
निकला तो यहाँ साक्षात्कार दिया और नियुक्ति हो गयी।
वो
विद्यार्थी जो जिलों से आये हों, उनके लिए शहर में रकर पढ़ने के लिए काफी संघर्ष
करना पड़चा है। मुझे भी करना पड़ा। हालाँकि मेरे दोनों बड़ेभाई मेरी मदद करते थे,
लेकिन वो शहर में नहीं रहते थे। इसलिए कमरा लेकर रहना पड़ता था। सईदाबाद में एक
मस्जिद है। बुखारी शाह साहब की मस्जिद में कमरा होने की जानकारी थी, लेकिन जब
पहुँचा तो वहाँ कोई दूसरे विद्यार्थी आ चुके थे। मैं मायूस हुआ तो मुअज्जिन ने कहा
कि एक कमरा है, लेकिन उसमें डोला (जनाज़ा ले जाने का झूला) रखा जाता है और अधिकतर
विद्यार्थी उसमें रहने को प्राथमिकता नहीं देते। अगर आपर डरते नहीं तो रह सकते
हैं।
मेरे
सामने तो हैदराबाद में रहकर पढ़ना, शिक्षा प्राप्त करना और आगे बढ़ने का उद्देश्य
था। मैं रह गया। किराया भी कम था और कमरा भी बड़ा था। ऐसा कई बार हुआ कि मैं खाने
के लिए बैठता तो कफन की बू आती, क्योंकि डोला किसी जनाज़े को ले जाने के काम के
बाद तभी लाकर रखा गया होता। मैं ये समझता कि ये भी जिंदगी का ये मुकाम है। इससे भी
गुज़रना होगा।
शुरू
में जब मैं कई यूनिवार्सिटियों और कॉलेजों में साक्षात्कार दिये तो बात नहीं बन
सकी। लगातार 8 साल तक नाकामियों का दौर रहा,लेकिन मेरे दिल में एक बात थी कि मुजे
एक न एक दिन उर्दू का प्रोफेसर बनना है और फिर मेरा वह विश्वास हकीकत में बदल गया।
आप ने
दक्खिनी पर भी काम किया।
दक्कन
से मेरा संबंध रहा है। दक्खिनी मेरा रूचिकर विषय रहा। हाशमी का शेर याद आता है।
तुझे
चाकरी क्या तु अपनीच बोल
तेरा शेर
दक्कनी है, दक्कनीच बोल
दर असल
एम ए के दौरान प्रो. मुहम्मद अली असर हमें दक्कनी पढ़ाते थे। उनके पढाने का अंदाज़
काफी दिलचस्प होता था। देहाती माहौल होने के कारण मुझे दक्कनी में कोई अधिक समस्या
नहीं थी। दक्कनी में मुझे लगता कि यहाँ अपना अलग स्थान बनाने की संभावनाएँ अधिक
थी।

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