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कल रात अताउल्लाह को सुन रहा था। एक शेर बड़ा अच्छा लगा। पेश है- मेरे महबूब ने मुस्कुराते हुए नकाब अपने चेहरे से सरका दिया चौदहवीं रात का चाँद शर्मा गया जितने तारे थे सब टूट कर गिर पड़े क्या बताऊँ के मायूस आंसू मेरे किस तरह टूट कर जेबे दामां हुए नर्म बिस्तर पे जैसे कोई गुलबदन अपने महबूब से रूत्ढ़ कर गिर पड़े
कभी तो ऐसा लगता है कि जिन्दगी अपना पूरा हक मांगती है, लेकिन टुकड़ों में जीता आदमी उसका यह हक कैसे अदा करे। जिनको एक पल जीने के लिए कई बार मरना पड़ता है और जिन्दगी एक बोझ सी लगने लगती है, उनके बीच रह कर उन का उत्साह बढाने के बारे में सोच रहा हूँ। सोच रहा हूँ के उन के बोझ को हल्का करने कि क्या तदबीर हो सकती है? यही हो सकता है के उनमे जिंदगी से मोहब्बत पैदा कि जाए, ताकि जो भी पल जीयें मस्त और मज़े से जियें ।