राइट भी राइट है या नहीं पता नहीं : पियूष मिश्रा

 

साक्षात्कार-

कलाकारों की ज़िंदगी के किस्से कुछ अलग ही होते हैं। आश्चर्यचकित कर देने वाली घटनाओं और साहसों से भरे। हिंदी रंगमंच, सिनेमा और संगीत के क्षेत्र से जुड़े बहुआयामी और प्रतिभावान कलाकार पियूष  मिश्रा के जीवन में भी ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है। ग्वालियर की यात्रा के दौरान जब उनसे मुलाक़ात हुई तो पता बहुत सी दिलचस्प बातों को जानने का मौका मिला। बताने लगे कि उन्होंने बचपन में एक फिल्म देखी थी दीवार, उसी फिल्म को देखकर मन में खयाल आया था कि अमिताभ बच्चन के साथ काम करेंगे। उन्होंने उसी समय अपने पिता को भी बता दिया था कि वे एक एक दिन अमिताभ बच्चन के साथ काम करेंगे और फिर लगभग अड़तीस साल बाद उन्होंने 2013 में फिल्म पिहु में अमिताभ के साथ कलाकारों की टीम में शामिल थे। लगभग 20 साल की उम्र में ग्वालियर से निकल कर दिल्ली में एनएसडी में प्रशिक्षण प्राप्त किया। कई बरसों तक नाटक करते रहे और एक दिन मुंबई की फिल्मी दुनिया का हिस्सा बन गये। उनका मानना है कि सपने देखना और उसे पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास करना ज़रूरी है। चूंकि हम ग्वालियर में थे और ग्वालियर में पले बढ़े कलाकार से बात कर रहे थे तो बात वहीं से शुरू की। प्रस्तुत हैं कुछ अंश:

शुरूआत हम ग्वालियर से ही करते हैंयहां आपने काफी समय बिताया हैजब पीछे मुड़कर देखते हैं तो क्या क्या याद आता है?

अरे, बड़ी हसीन यादें हैं, कान्वेंट स्कूल, लड्डू, कचोरी, सुबह चार बजे से मंदिर की घंटियाँ बजनी शुरू हो जाती थीं। मैं सुबह जब वॉक पर निकलता तो, मिंदर की घंटों से सारी फज़ा गूंज उठा करती थी। बीस साल तक मैं यहाँ था और ग्वालियर को छोड़े हए बैयालीस साल हो गये हैं। थोड़े बहुत दोस्त यहाँ यहाँ, परिवार के सब लोग तो यहां से चले गये, अब कोई बचा नहीं।

जब आपने ने छोड़ा था और अब जब लौटकर देखते हैं तो क्या परिवर्तन पाते हैं?

बहुत कुछ बदला है। यह जो सेंट्रल पार्क के आगे का हिस्सा है, वह तो था ही नहीं। यूनिवर्सिटी की सड़क बड़ी सुनसान हुआ करती थी। ऐसा लगता किसी और शहर जा रहा है। चालीस साल में कितना कुछ बदल जाता है। मैं ओल्ड ग्वालियर में हुआ करता था। वहां पुराने घर खत्म हो गये, अपार्टमेंट बन गये हैं।

ग्वालियर तो कला विशेषकर संगीत घरानों के लिए मशहूर रहा है?

हां यह सही है, लेकिन मेरा उन घरानों से संबंध नहीं रहा है, क्योंकि मैं शास्त्रीय संगीतकार नहीं हूँ। थियेएटर ज़रूर करता रहा और थिएटर से संबंध के चलते ही मैं कलाकार बना हूँ। साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में यहाँ थिएटर बहुत समृद्ध हुआ करता था। कलामंदिर, लिटिल बैलेट, कला समूह जैसी बहुत सारी संस्थाएं थीं। टिकट शो हुआ करता था।

क्या कारण है कि अब पहले जैसा थिएटर नहीं रहा?

मुझे अफसोस है कि वह गतिविधियाँ नहीं रही। वे कलाकार भी नहीं रहे, जिनके काम से थिएटर जिंदा था। मैं सोचता हूं कि वह थिएटर कहाँ चला गया, यहां तो भोपाल से भी बेहतर थिएटर हुआ करता था।

आपकी जनरेशन के कलाकार जहां थे, वहां हंगामे रहे, लेकिन नयी नसल के कलाकारों के कलात्मक जीवन उतने हंगामों से भरपूर नज़र नहीं आते?

पता नहीं ऐसा क्यों है। कोई तो कारण होगा, थिएटर के चले जाने का। थिएटर तो आदमी के भीतर से होता है, उसमें आंदोलन होता है, बल्कि मैं तो यही कहता हूं कि जब तक जन आंदोलन नहीं होगा, उसे थिएटर नहीं कह सकते। थिएटर क्लब एक्टिविटी नहीं हो सकती, वह आंदोलन हो सकता है।

थिएटर सिर्फ ग्वालियर से ही गायब हुआ है या फिर सब जगह ऐसा ही माहौल है?

नहीं, बिल्कुल नहीं, भोपाल में बहुत अच्छा थिएटर हो रहा है। ज़बर्दस्त माहौल है। ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब वहाँ नाटक न होता है, बल्कि एक दिन कई-कई शो होते हैं। हाँ दिल्ली में थिएटर की गतिविधियाँ कुछ कम हुई हैं।

क्या सोशल मीडिया का कुछ प्रभाव कलात्मक गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं?

हो सकता है, मैं सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय नहीं हूँ। मैं उसे अधिक महत्व नहीं देता। मैं सोशल मीडिया से कुछ दूर रहता हूँ। सोशल मीडिया से भोपाल में तो थिएटर बंद नहीं हुआ। लोग कुछ दिन थिएटर करके छोड़ देते हैं। इसे सिनेमा की पहली सीढ़ी माना जाता है पहले भी ऐसा माना जाता था। लोगों को लगता है कि तीन चार नाटक करके सीधे सिनेमा में चले जाएंगे। यह भी सही है कि सिनेमा ने दिल्ली से कई लोगों को उठाया है। अब ऐसा लगता है कि लोगों का मक़सद ही फिल्म हो गया है। उनके उद्देश्य में लेफ्ट कम हो गया है, राइट ही राइट हो गया है। अब वह राइट है या नहीं यह पता नहीं। खड़ा होना, आवाज़ उठाना लगता है गायब हो गया है।

आप एक कलाकार के रूप में क्या समझते हैं कि थिएटर का दौर फिर से लौटकर आएगा?

मैं तो कर रहा हूँ। मेरे बैंड में बहुत सारे क्रांतिकारी गीत हैं। अब बात करना चाहें तो कर सकते हैं, वह सुनी भी जाएगी, लेकिन थौंपकर काम नहीं होगा। इन्कलाब अंदर से होना चाहिए, केवल चिल्लाने से इंकलाब नहीं होगा।

आपने कई दिशाओं में काम किया है और सफलता भी अर्जित की है, इस सफलता के क्या तत्व हैं?

चलता गया, चलता गया, रुकने का नाम मरना है। रुका नहीं आज भी चल रहा हूँ। मुझे हर क्षेत्र में काम मिलता गया और मैंने किया भी। मेरे विचार में हर बंदे के पास ऐसा शक्ति नहीं होती कि वह हर काम करे, लेकिन मझे लगता है यह गॉडगिफ्ट है, जो मुझे मिला है। कला की यह गिफ्ट है, जो मुझे मिली है। हालाँकि अब थकन होती है, कमर में दर्द होने लगता है, लेकिन किये जा रहे हैं, जिये जा रहे हैं।

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