हम भी मुस्कुराए क्योंकि लखनऊ हो आये

घर से निकले तो कुछ दूर चलना , ज़रूरत पड़ने पर दौड़ना , रास्ता लंबा हो तो किसी सवारी पर सवार होना ज़रूरी है। कार , बस या रेल में सफर करना अथवा हवा में उड़कर किसी एक शहर से दूसरे शहर जाना अपनी अपनी ज़रूरतों और सहूलतों पर निर्भर होता है। हर दिन लाखों लोग सफर करते हैं। कुछ लोगों को तो अकसर सफर में ही रहना पड़ता है। अब उनकी वो जाने कि उन्हें कितना ' सफर ' करना पड़ता है। इस सब के बावजूद जो कहीं जाने के लिए निकलता है , वह यात्रा उसके लिए ख़ास होती है। मेरे लिए भी यह यात्रा ख़ास थी। इसलिए कि एक लंबी रेल यात्रा के लिए बेगम के साथ निकला था और इसलिए भी कि हम लखनऊ जा रहे थे। उस शहर में जहाँ का मुस्कुराना काफी मशहूर है। सोचा कि हम भी वहाँ चलकर मुस्कुराते हैं। बाद में क़हक़हे लगाने की मुहमलत मिले या न मिले। इमामबाड़े के पास एक से ल्फी लखनऊ से साहित्यिक पत्रिका ' शब्दसत्ता ' के संपादक सुशील सीतापुरी का दावतनामा मिला कि हिंदी और उर्दू की साहित्यिक पत्रकारिता पर एक संगोष्ठी में भाग लेने लखनऊ आना है। हालाँकि इसकी सूचना पहले ही शायर और आलोचक डॉ. रऊफ खैर दे चुके थे ,...