... तो आवाज़ें गुम हो जाती हैं।
यह पुरानी नहीं , नई पीढ़ी भी कहती है कि अब पहले जैसे फिल्मी गीत नहीं बनते। हालाँकि आज के युवा इन नये शोर में नाच गाकर अपने आपको एंजॉय हुआ महसूस करते हैं , लेकिन उस मनोरंजन से मन के रंजन की आत्मा ग़ायब है। किसी पार्टी से बच्चे जब घर आते हैं तो अपने आपको थके हारे महसूस करते हैं , इसलिए भी कि वहाँ उन्होंने जिन धुनों पर उछलकूद की थी , उसमें कुछ पल का उत्साह तो था , लेकिन उस उत्साह में मन को रंगने की क्षमता नहीं थी , चित्त को प्रसन्न करने वाला भाव नहीं था , जो मनोरंजन का मूल उद्देश्य होता है। वहाँ तो शोर था और शोर जब बढ़ता है तो आवाज़ें गुम हो जाती हैं। प्रतीकात्मक-लखनऊ के इमामबाड़े का कूँआ प्रकृति जितनी क़रीब रहती हैं , आवाज़ें उतनी ही स्पष्ट होती हैं , बल्कि कई आवाज़ें एक जैसी लगने के बावजूद उनमें भिन्नता को महसूस किया जा सकता है। हैदराबाद में एक ग़ज़ल गायक हैं ख़ालिद इक़बाल , उनका ग़ज़ल सुनाने का अंदाज़ बिल्कुल अलग है , बल्कि वह क़व्वाली और ग़ज़ल की शैली में हल्का सा मुशायरा भी ले आते हैं। अगर वो कोई ग़ज़ल सुनाते हैं तो समझिए कि वह 20 मिनट या आधे घंटे तक भी चल सकती है। ग़ज़ल म...